1949 के भारतीय संविधान के अनुसार, भारतीय राज्यों को भूमि सुधार अधिनियमों एवं शक्तियों को लागू करने की मंजूरी दी गयी थी. यह अधिनियम भूमि सुधार की संख्या के मामले में भारतीय राज्यों को अधिक मदद उपलब्ध कराता है और समय रहते हुए किसी भी समस्या के सन्दर्भ में गारंटी देता है.
हम अपने मुख्य उद्देश्य के अनुसार भूमि सुधार अधिनियमों को 4 प्रमुख श्रेणियों में वर्गीकृत करते है:
प्रथम श्रेणी: यह अधिनियम काश्तकारी सुधार से संबंधित है. यह ठेके की व्यवस्था एवं पंजीकरण को समाप्त करने के अलावा किरायेदारी को खत्म करने और स्वामित्व स्थानांतरित करने के प्रयासों से सम्बंधित था. साथ ही संविदात्मक शर्तों के पंजीकरण के माध्यम से किरायेदारी एवं ठेके की व्यवस्था दोनों को नियंत्रित करने के कार्यों से सम्बंधित था.
दूसरी श्रेणी: यह अधिनियम बिचौलियों को खत्म करने के प्रयास से संबंधित था. इस अधिनियम के पूर्व भारत में जमींदारी व्यवस्था लागू थी जिसके तहत किसानो से उनके उत्पाद का अधिकांश भाग कर के रूप में वसूल लिया जता था और उसे अंग्रेज सरकार को दे दिया जाता था.
तीसरी श्रेणी: इस श्रेणी में भूमिहीन वर्गों को अधिशेष भूमि पुनः दिए जाने का एक मजबूत दृष्टिकोण समाहित था.
चौथी श्रेणी: यह अधिनियम विभिन्न भूमि जोतों के समेकन की अनुमति देने का प्रयास करता है. यद्यपि ये सुधार विशेष रूप से परवर्ती काल की कृषि के क्षेत्र में प्रभावी लाभ प्राप्त करने के मामले में आंशिक रूप से उचित थे. हालांकि यह स्वयं में काफी प्रवाकारी कार्य नहीं रहा है क्योंकि राजनीतिक घोषणापत्र के अनुसार पूर्व के जितने भी सुधार हुए है वे सभी गरीबी उन्मूलन से सम्बन्धित रहते थे.
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