भारत में जैव विविधता का संरक्षण

भारत, संरक्षण और वन्य जीवन प्रबंधन से संबंधित कई प्रमुख अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का हस्ताक्षरी रहा है। इनमें से कुछ जैव विविधता सम्मेलन, वन्य जीव और वनस्पति की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर आधारित सम्मेलन (सीआईटीईएस) आदि रहे हैं। भारत दुनिया के 17 बिशाल विविधतापूर्ण देशों में से एक है। लेकिन कई पौधों और जानवरों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। गंभीर खतरे और अन्य विलुप्तप्राय पौधों तथा पशु प्रजातियों की रक्षा करने के लिए भारत सरकार ने कई कदम, कानून और नीतिगत पहलों को अपनाया है।

Dec 9, 2015, 13:04 IST

भारत, संरक्षण और वन्य जीवन प्रबंधन से संबंधित कई प्रमुख अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का हस्ताक्षरी रहा है। इनमें से कुछ जैव विविधता सम्मेलन, वन्य जीव और वनस्पति की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर आधारित सम्मेलन (सीआईटीईएस) आदि रहे हैं। भारत दुनिया के 17 बिशाल विविधतापूर्ण देशों में से एक है। लेकिन कई पौधों और जानवरों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। गंभीर खतरे और अन्य विलुप्तप्राय पौधों तथा पशु प्रजातियों की रक्षा करने के लिए भारत सरकार ने कई कदम, कानून और नीतिगत पहलों को अपनाया है।

भारत में जैव विविधता का संरक्षण:

बाघ परियोजना (प्रोजेक्ट टाइगर): भारत सरकार द्वारा डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंटरनेशनल के सहयोग से 1973 में बाघ परियोजना को शुरू की गयी थी, और यह इस तरह की पहली पहल थी जिसका उद्देश्य मुख्य प्रजातियों और उसके सभी निवास स्थानों की रक्षा करना था।

मगरमच्छ संरक्षण: मगरमच्छ पर खतरा मंडरा रहा है क्योंकि उनकी त्वचा का प्रयोग चमड़े का सामान बनाने के लिए किया जाता है। इस कारण भारत ने 1960 के दशक में जंगलों में मगरमच्छ के विलुप्त होने पर चिंता व्यक्त की थी। प्रजनन केंद्रों का निर्माण कर उनके प्राकृतिक निवास में मगरमच्छों की शेष आबादी की रक्षा करने के उद्देश्य से 1975 में मगरमच्छ प्रजनन और संरक्षण का एक कार्यक्रम शुरू किया गया था। यह शायद देश में सबसे सफल पूर्व स्वस्थानी संरक्षण प्रजनन परियोजनाओं में से एक है।

हाथी परियोजना: उत्तर और पूर्वोत्तर भारत तथा दक्षिण भारत में हाथियों के प्राकृतिक निवास में उनकी एक व्यवहार्य आबादी की लंबी अवधि के अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए 1992 में हाथी परियोजना शुरू की गयी थी। यह 12 राज्यों में लागू की गयी है।

उड़ीसा - ओलिव रिडले कछुए: उड़ीसा तट के गहिरमाथा और अन्य दो स्थानों पर प्रतिवर्ष दिसंबर और अप्रैल के बीच बड़े पैमाने पर निवास करने के लिए हजारों की संख्या में ओलिव रिडले कछुए एकत्र होते थे। यह दुनिया में ओलिव रिडले कछुओं के लिए निवास का सबसे बड़ा स्थान था। 1999 में मार्च के अंत तक यह अनुमान लगाया गया था कि हिरमाथा समुद्री तट पर लगभग 200,000 कछुए रहते हैं। समुद्री जीव विज्ञानियों का मानना है कि वास्तव में प्रति हजार अंडों में से केवल एक ही परिपक्व हो पाता है। इन निवास स्थानों पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। छोटे निवास स्थल, इनके नजदीक सड़कों और भवनों का निर्माण, और अन्य बुनियादी सुविधाओं के विकास की परियोजनाएं निवास स्थानों में बाधाएं पैदा कर रही हैं। जालदार जहाजों द्वारा मछली पकड़ना कछुओं के लिए एक बड़ी चुनौती है। 1974 में इस समुद्र तट की 'खोज' के बाद इसे एक अभयारण्य (भीटारकनाईका अभयारण्य) के रूप में अधिसूचित किया गया था और इसे शिकार के लिए बंद कर दिया गया था। बड़े मछुआरों द्वारा मछली पकड़ने से कछुए के लिए पैदा हुए खतरे को भांपते हुए 1982 में उड़ीसा समुद्री मत्स्य नियमन अधिनियम पारित किया गया था। यह अधिनियम राज्य भर में समुद्र तट से 10 किमी के भीतर मछली पकड़ने की अनुमति नहीं देता है और सभी मछुआरों के लिए ट्रॉलर एक्सक्लूडर डिवाइसेस (टीईडी) का उपयोग करना अनिवार्य कर दिया गया। 2001 में उड़ीसा की राज्य सरकार ने समुद्र तट से 20 किलोमीटर की दूरी को पांच महीने की अवधि जनवरी से मई के बीच मछली नहीं पकड़ने का मौसम घोषित कर दिया। इन कदमों के अलावा, कई स्थानीय गैर सरकारी संगठनों की भागीदारी के साथ भारतीय वन्यजीव संरक्षण सोसायटी, दिल्ली और उड़ीसा की वन्यजीव (वाइल्डलाइफ) सोसायटी द्वारा ऑपरेशन कच्छपा को संचालित किया जा रहा है। उड़ीसा वन विभाग, डब्ल्यूआईआई, देहरादून और तटरक्षक बल भी इस परियोजना में शामिल हैं।

पूर्व स्वस्थानी संरक्षण: इस समय ऐसी परिस्थितियां हैं जिसमें लुप्तप्राय प्रजातियां विलुप्त होने के इतने करीब हैं कि वैकल्पिक तरीकों की शुरूआत की जा रही है ता कि तेजी सी विलुप्त हो रही प्रजातियों को बचाया जा सके। इस रणनीति को पूर्व स्वस्थानी संरक्षण के रूप में जाना जाता है, अर्थात वनस्पति उद्यान या एक प्राणी उद्यान सावधानीपूर्ण नियंत्रित स्थिति में प्राकृतिक निवास स्थान के बाहर जहां विशेषज्ञ होते हैं वह कृत्रिम रूप से प्रबंधित शर्तों के तहत प्रजातियों की गणना करते हैं।

एक जीन, बैंक में अपने रोगाणु जीवाणु के संरक्षण द्वारा एक पादप का संरक्षण करता है जो इसका दूसरा रूप भी है ता कि जरूरत पड़ने पर भविष्य में इसका प्रयोग किया जा सके। यह और भी अधिक महंगा है।

 मगरमच्छ की सभी तीन प्रजातियों के लिए भारत में सफलतापूर्वक पूर्व स्वस्थानी संरक्षण कार्यक्रम को पूरा किया गया है। यह बेहद सफल रहा है। हाल ही में एक सफलता गुवाहाटी के चिड़ियाघर में बहुत ही दुर्लभ बौने खस्सी सूअर (हॉग) के प्रजनन से हुई है। दिल्ली चिड़ियाघर में भी सफलतापूर्वक दुर्लभ मणिपुर बारासिंघी हिरण का प्रजनन हुआ है।

पर्यावरण और जैव विविधता से संबंधित पारित हुए महत्वपूर्ण भारतीय अधिनियम

  1. मत्स्य अधिनियम 1897
  2. भारतीय वन अधिनियम 1927
  3. खनन और खनिज विकास विनियमन अधिनियम 1957
  4. जानवर क्रूरता निवारण 1960
  5. वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972
  6. जल (प्रदूषण का निवारण और नियंत्रण) अधिनियम 1974
  7. वन संरक्षण अधिनियम 1980
  8. वायुमंडल (रोकथाम और प्रदूषण के नियंत्रण) अधिनियम 1981
  9. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986
  10. जैव विविधता अधिनियम 2002
  11. अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासी (अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006
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