जर्मनी, अर्जेंटीना, स्पेन और पुर्तगाल के बाद सबकी उम्मीदें पांच बार के विश्व विजेता ब्राजील और उसकी टीम के खास दुनिया के सबसे महंगे फुटबॉलर नेमार पर टिकी थीं, लेकिन बेल्जियम ने क्वार्टर फाइनल में सबकी उम्मीदों को ध्वस्त करते हुए जिस तरह से ब्राजील को आसानी से 2-0 से हरा दिया, वह हर किसी को आसानी से हजम नहीं हो सकता। इस खास मैच मे बेल्जियम के खिलाड़ियों ने सामूहिक खेल का नमूना पेश करते हुए एक बार फिर टीम की ताकत का एहसास कराया, जिसे स्वीकार करते हुए ब्राजीली स्टार नेमार ने भी मैक्सिको के खिलाफ प्री-क्वार्टर फाइनल में मिली जीत के बाद कहा था, ‘निजी की बजाय सामूहिक प्रयास अधिक महत्वपूर्ण हैं। मैं कभी नहीं चाहूंगा कि यह नेमार का विश्व कप हो। मैं चाहूंगा कि यह ब्राजील का विश्व कप हो।’
अति - आत्मविश्वास
संगठनों की बात करें, तो देखा जाता है कि कुछ संगठन जहां अपनी उत्पादकता से एक के बाद एक इतिहास रचते हैं, वहीं कुछ संगठन कामयाबी की एक सीमा के बाद उससे ऊपर नहीं उठ पाते और उसी स्तर पर रह जाते हैं। दरअसल, इसके पीछे भी टीम की ताकत को समझने की बजाय लीडर द्वारा अपनी उपलब्धियों पर आत्ममुग्ध होना और इसके लिए किसी और को श्रेय न देने की भावना ही होती है। यही कारण है कि शुरुआत में जोरदार प्रदर्शन करने वाली टीम बिखर जाती है और उसकी जगह लेने वाले लोग बनावटी चीजों से अस्थायी चमक लाने की कोशिश करते हैं, जो आखिरकार सफल नहीं हो पाती। ओवर-कॉन्फिडेंस के शिकार लीडर को या तो यह बात समझ में नहीं आती या फिर जब तक वह समझता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
आज के मैनेजमेंट की भाषा में कहें तो एक जुझारु नेतृत्वकर्ता अपने दम पर किसी भी टीम को कामयाब नहीं बना सकता, लेकिन चुनिंदा क्षमतावान, प्रतिबद्ध, उत्साही एवं व्यक्तिगत उपलब्धियों की भावना से परे लोग एक साधारण नेतृत्वकर्ता की अगुआई में भी किसी टीम को विजेता बना सकते हैं। लगातार अच्छे प्रदर्शन के लिए टीम की ताकत समझते हुए उसे निरंतर प्रोत्साहित करना क्यों जरूरी है, बता रहे हैं अरुण श्रीवास्तव... |
जरूरी है साथ
यह विडंबना ही कही जाएगी कि आज भी तमाम लीडर यही समझते हैं कि टीम के किसी भी प्रदर्शन के पीछे वही हैं, जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। अगर टीम प्रेरित और उत्साही होने की बजाय आत्मकेंद्रित और उदासीन है, तो ऐसी टीम के साथ कोई भी महत्वांकाक्षी अभियान पूरा कर पाना संभव नहीं हो सकता। और अगर कोई नेता यह समझता है कि कोई करे या न करे, वह तो खुद इतना सक्षम है कि किसी भी अभियान को अपने दम पर आगे ले जा सकता है तो यह उसकी भूल या गर्वोक्ति ही कही जाएगी। दरअसल, अपनी कर्मठता और जुझारुपन की वजह से कामयाबी के एक चरण तक तो पहुंचा जा सकता है, लेकिन निरंतर कामयाबी पाने और आगे जाने के लिए टीम का साथ बेहद जरूरी हो जाता है। टीम का समुचित साथ न मिलने पर अकेले दम पर चलते-चलते अंतत: लीडर का उत्साह भी कम हो सकता है या चुक सकता है, जबकि कर्मठ टीम मेंबर्स होने पर हर अभियान उत्साह के साथ पूरा किया जा सकता है।
टीम भावना
कोई भी टीम अपने आप मजबूत नहीं बन जाती। इसके लिए टीम के हर सदस्य के भीतर एक-दूसरे के प्रति सहयोग और आत्मीयता की भावना होने के अलावा हर एक को उत्साहित बनाए रखना भी बेहद जरूरी होता है। यहीं एक लीडर की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। प्राचीन और मध्ययुग में युद्धों के दौरान सेनापति ललकार कर अपनी टीम को उत्साहित करता था। आज के समय टीम की उपयोगिता और महत्व कार्यस्थलों पर देखी जा सकती है। जो लीडर अपनी टीम को एकजुट और प्रेरित रखने में कामयाब होता है, उसका प्रदर्शन अन्य टीमों/विभागों की तुलना में सबसे बेहतर देखा जाता है। लेकिन टीम को एकजुट रखने के लिए नेता को लगातार उनसे संवाद करते रहने की जरूरत होती है। अक्सर तमाम विभागों या टीम के रूप में कार्य करने वाले लोग एक-दूसरे के प्रति ईष्र्या भाव रखने के कारण टीम की ताकत नहीं बन पाते। ऐसे में टीम लीडर ही है, जो अपनी टीम के हर सदस्य से मिलने, उनके मतभेदों को दूर करके उनके बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करने की भूमिका निभाते हुए उन्हें निरंतर उत्साहित करता रहता है। वह हर मेंबर की ताकत और कमजोरी भी जानता है। वह जानता है कि कैसे उनकी कमजोरी को ताकत में बदला जा सकता है।
उत्साह के साथ चुनौतियों का सामना एक उदासीन और कम्फर्ट ज़ोन में रहने वाली यथा स्थितिवादी टीम कभी किसी नई चुनौती का सामना नहीं करना चाहती. वह किसी न किसी बहाने या तो इससे कन्नी काट लेती है या फिर टाल-मटोल करते हुए ऐसी परिस्थिति पैदा कर देती है कि आगे से उसे कोई चुनौतीपूर्ण कार्य दिया ही न जाए. वहीँ दूसरी तरफ उत्साह और समर्पण से भरी हुई टीम खुद आगे बढ़कर चुनौतीपूर्ण कार्यों की न सिर्फ मांग करती है, बल्कि समय से पहले उसे पूरा भी कर देती है. यह है टीम-टीम का फर्क. दोनों ही टीमों के लिए उनके लीडर को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. एक लीडर जहां अपने उदासीन भाव से अपनी टीम को अकर्मण्य बना देता है, वहीँ दूसरा लीडर अपने उत्साही भाव से टीम में जान फूंक देता है. |
सुख-दुख के सहभागी
ऐसा नहीं हो सकता कि एक लीडर टीममेंबर्स को असाइनमेंट देकर अपनी जिम्मेदारी से छुट्टी पा जाए। निरंतर आउटपुट का दबाव बनाकर भी टीम से बेहतर परिणाम नहीं पाया जा सकता। लगातार अच्छे प्रदर्शन के लिए लीडर को अपनी टीम के सदस्यों की परेशानियां भी समझनी होती हैं। उसके सुख-दुख का साझीदार बनकर और यथासंभव मदद कर उससे भावनात्मक संबंध भी विकसित किया जा सकता है। जब किसी टीम के मेंबर को यह एहसास हो जाता है कि उसका नेता उसकी हर मुश्किल में उसके साथ है, तो वह भी अपने नेता के एक इशारे पर कोई भी काम करने को तैयार रहता है। तब उसे अपनी मुश्किलों की परवाह नहीं होती, क्योंकि वह अपने नेता और टीम की प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आने देना चाहता। आखिरकार यही चीजें उसे एक नेता के तौर पर स्थापित करती हैं।
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