हाल ही में केंद्र सरकार की ओर से भारत में जाति आधारित जनगणना का फैसला लिया गया है। इसे लेकर राजनीतिक मामलों की कैबिनेट कमेटी(CCPA) द्वारा मंजूरी भी दे दी गई है। अब अगली जनगणना में जातियों के आधार पर भी गणना की जाएगी। इससे सरकार को यह पता चलेगा कि भारत में कहां किस जाति की कितनी गणना है। हालांकि, सबसे पहले इसका इतिहास और महत्त्व भी जानना जरूरी है। इस लेख में हम इस बारे में जानेंगे।
क्या होती है जाति जनगणना
सबसे पहले हम यह जान लेते हैं कि जाति जनगणना क्या होती है। आपको बता दें कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें देश की आबादी को उनकी जाति के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। यह सामान्य जनसंख्या के अलग से होती है। क्योंकि, सामान्य जनगणना में जनसंख्या, आर्थिक गतिविधि और शिक्षा जैसे विषयों पर डाटा लिया जाता है।
आखिरी बार कब हुई थी जाति जनगणना
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान 1872 से लेकर 1931 तक नियमित रूप से जाति आधारित जनगणना की जाती थी। साल 1947 में देश आजाद हुआ और भारत सरकार ने नीतिगत रूप से अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के अलावा अन्य जातियों की जनगणना नहीं की। हालांकि, आखिरी बार सरकार द्वारा 2011 में सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (Socio-Economic and Caste Census - SECC) कराई थी। हालांकि, इस जनगणना में जाति को लेकर लिए गए आंकड़े पूरी तरह जारी नहीं हुए।
क्या हैं जाति जनगणना के उद्देश्य
सामाजिक और आर्थिक असमानताओं का आकलन: जातिगत जनगणना का मुख्य उद्देश्य विभिन्न जाति समूहों के बीच शिक्षा, रोजगार, आय और संपत्ति के वितरण में मौजूद असमानताओं का सटीक आकलन करना है।
लक्षित नीतियों का निर्माण: जाति जनगणना से मिले डाटा से सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए नीतियों को बनाने में मदद मिलेगी।
संसाधनों का उचित आवंटन: इससे उन क्षेत्रों में ध्यान देने में मदद मिलेगी, जहां संसाधनों की आवश्यकता है।
पिछड़े वर्गों की पहचान: इससे सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करने में मदद मिलेगी, जिससे उनके लिए बेहतर नीतियां बनाई जा सके।
अनुसंधान के लिए डाटाबेस: इससे शिक्षाविदों और विशेषज्ञों को विभिन्न पहलुओं पर अनुसंधान करने के लिए मदद मिलेगी।
जाति जनगणना से जुड़ी चिंताएं
-भारत में हजारों जातियां और उपजातियां हैं, ऐसे में इनका सटीक आंकड़ा लेना मुश्किल है।
-कुछ लोगों का तर्क है कि इससे जाति व्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा।
-कुछ विशेषज्ञों का तर्क है कि इससे सामाजिक विभाजन को बढ़ावा मिलेगा।
-नीति निर्माण से जुड़े कुछ विशेषज्ञों का तर्क है कि इससे मुख्य रूप से राजनीति लाभ हो सकता है।
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