गुप्त काल के बाद (750 ई. पू. तक)
5वीं शताब्दी के अंत के दौरान गुप्त साम्राज्य का बिखराव शुरू हो गया था। शाही गुप्तों के समाप्त होने के साथ साथ मगध और इसकी राजधानी पाटलिपुत्र ने भी अपना महत्व खो दिया था। इसलिए, गुप्त काल के बाद की अवधि प्राकृतिक लिहाज से बहुत अशांत थी। गुप्तों के पतन के बाद उत्तर भारत में पांच प्रमुख शक्तियां फैल गयी थी। ये शक्तियां निम्नवत् थी:
हूण: हूण मध्य एशिया की वह दुर्लभ प्रजाति थी जिसका आगमन भारत में हुआ था। कुमारगुप्त के शासनकाल के दौरान, हूणों ने पहली बार भारत पर आक्रमण किया था। हालांकि, कुमारगुप्त और स्कन्दगुप्त राजवंश के दौरान वे भारत में प्रवेश करने में सफल नहीं हो सके थे। हूणों ने तीस साल की एक बेहद ही कम अवधि के लिए भारत पर राज किया था। हूणों का वर्चस्व उत्तर भारत में स्थापित हुआ था। तोरामन उनका एक सर्वश्रेष्ठ शासक था जबकि मिहिरकुल सबसे शक्तिशाली और सुसंस्कृत शासक था।
मौखरि: पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कन्नौज के आसपास के क्षेत्र पर मौखरियों का कब्जा था। उन्होंने मगध के कुछ हिस्से पर भी विजय प्राप्त की थी। धीरे-धीरे उन्होंने बाद में गुप्तों को सत्ताविहीन कर दिया और उन्हें मालवा जाने के लिए मजबूर कर दिया।
मैत्रक: शायद अधिकांश मैत्रक ईरानी मूल के थे और वल्लभी के रूप में राजधानी के साथ गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में शासन किया। भटरक के मार्गदर्शन में वल्लभी शिक्षा, संस्कृति और व्यापार तथा वाणिज्य का केंद्र बन गयी थी। इसने सबसे लंबे समय तक अरबों से रक्षा की थी।
पुष्यभूति: थानेश्वर (दिल्ली का उत्तरी भाग) पुष्यभूति की राजधानी थी। प्रभाकर वर्धन इस वंश का सबसे विशिष्ट शासक था जिसने परम भट्टारक महाराजाधिराज की पदवी धारण की थी। उसका मौखरियों के साथ एक वैवाहिक गठबंधन था। वैवाहिक गठबंधन ने दोनों साम्राज्यों को मजबूत बनाया था। हर्षवर्धन इसी गोत्र से संबंध रखते थे।
गौड: गौड़ों ने बंगाल के एक क्षेत्र पर शासन किया और बांकि चार साम्राज्य काफी कम प्रसिद्ध थे। शशांक इनका सबसे शक्तिशाली और महत्वाकांक्षी शासक था। उसने मौखरियों पर आक्रमण कर ग्रहवर्मन की हत्या कर दी थी तथा राज्यश्री को हिरासत में ले लिया था।
हर्षवर्धन का राजवंश:
हर्षवर्धन (606-647 ईस्वी): हर्षवर्धन ने लगभग 1400 साल पहले शासन किया था।
कई ऐतिहासिक स्त्रोत जो हर्षवर्धन के शासनकाल का हिस्सा थे: -
ह्वेनसांग: 'सी-यू-की' की रचना की।
बाण भट्ट: हर्षचरित, कादम्बरी और पार्वतिपरिणय (संस्कृत में हर्षवर्धन की शक्ति/ जीवनी के अभ्युदय का एक विवरण)।
हर्ष के स्वयं के नाटक: राजनीति के विषय में रत्नावली, नागभट्ट और प्रियदर्शिका। हरिदत्त और जयसेन को भी हर्ष का संरक्षण प्राप्त था।
हर्ष की शक्ति में वृद्धि: अपने बड़े भाई राज्यवर्मन की मृत्यु के बाद 606 ईस्वी में हर्ष सिंहासन पर विराजमान हुआ। बंगाल के शासक के खिलाफ अपने भाई की मौत का बदला लेने और अपनी बहन को रिहा करवाने के उसने सेना का नेतृत्व किया। गौड़ों के खिलाफ वह अपने पहले मिशन में असफल रहा था, लेकिन जल्द ही उसने अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था।
हर्ष को आम तौर पर भारत के अंतिम महान हिन्दू सम्राट के रूप में जाना जाता था। लेकिन वह कट्टर हिंदू शासक नहीं था। उसने कश्मीर, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और उड़ीसा को छोड़ उत्तर भारत में ही अपनी शक्ति को सीमित कर दिया था जहां उसका सीधा नियंत्रण था।
हर्षवर्धन का प्रशासन:-
अधिकारी प्रशासनिक क्षेत्र
महासंधि ब्रिग्राहक शांति और युद्ध के बारे में फैसला करने वाला अधिकारी
महाबलाधि कृत थल सेना का प्रमुख अधिकारी
बलाधिकृत कमान्डर
आयुक्तक सामान्य अधिकारी
वृहदेश्वर अश्व सेना का प्रमुख
दूत राजस्थारुया विदेश मंत्री
कौतुक हस्ती सेना का प्रमुख
उपरिक महाराज राज्य प्रमुख
वाकटक साम्राज्य
वाकटक साम्राज्य मध्य तीसरी शताब्दी ईस्वी के दौरान डेक्कन में स्थित था। राज्य, पश्चिम में अरब सागर से पूर्वी छत्तीसगढ़ के कुछ भागों के साथ-साथ उत्तर में मालवा और गुजरात के दक्षिणी किनारों से दक्षिण में तुंगभद्रा नदी तक विस्तारित हो गया था। वाकटक डेक्कन में सातवाहन के उत्तराधिकारी थे और उत्तरी भारत में गुप्तों के समकालीन भी थे।
राजवंश का संस्थापक विध्याक्ति (250 ई.पूं -270 ई.पू.) था जिसका नाम विंध्य देवी से लिया गया था जिसके नाम पर बाद में पहाड़ नामित हुआ था।
चालुक्य
चालुक्यों ने रायचूर दोआब पर शासन किया था जो कृष्णा और तुंगभद्रा की नदियों के बीच स्थित था। ऐहोल (मंदिरों का शहर) चालुक्यों की पहली राजधानी होने के साथ-साथ व्यापर का केंद्र थी जिसे बाद में इसके चारों ओर मंदिरों की संख्या ज्यादा होने से धार्मिक केंद्र के रूप में विकसित किया गया था। पुलकेसिन प्रथम के दौरान चालुक्यों की राजधानी बादामी स्थांतरित की गयी थी। बादामी को वातापी के रूप में भी जाना जाता था।
पल्लव
इस राज्य की राजधानी कांचीपुरम थी जो कावेरी डेल्टा चारों ओर फैली हुयी थी। पल्लवों ने सातवाहनों के पतन के बाद दक्षिण भारत में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की और छठीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी के अंत तक शासन किया था। तत्पश्चात् वे आंध्र और फिर वहां से कांची चले गये जहां उन्होंने शक्तिशाली पल्लव साम्राज्य की स्थापना की।
पल्लव की उत्पत्ति
पल्लवों की उत्पत्ति के संबंध में कई विवाद रहे हैं। उनमें से कुछ महत्वपूर्ण निम्न प्रकार हैं-
• संभवतः वे यूनानी पारथीयों के वंशज थे जो सिकंदर के आक्रमण के बाद भारत आये थे।
• संभवत: वे एक स्थानीय आदिवासी कबीले के थे जिन्होंने तोंडैन्नाडु या लता भूमि पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था।
• वे चोल -नागों के विवाह से उत्पन्नित थे
• वे उत्तर के रूढ़िवादी ब्राह्मण थे और उनकी राजधानी कांची थी।
पल्लव राजवंश के महत्वपूर्ण शासक
सिंहविष्णु: इस वंश का प्रथम महत्वपूर्ण शासक था। सिंहविष्णु ने चोलों के क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था और बाद में सीलोन सहित अन्य दक्षिणी क्षेत्रों पर राज किया।
महेन्द्रवर्मन प्रथम: पुलकेशिन द्वितीय ने उसे पराजित कर दिया था। सेंट अप्पर और विद्वान भारवि द्वारा उसका संरक्षण किया गया था। महेन्द्रवर्मन प्रथम ने एक व्यंग्य नाटक 'मत्तविलास प्रहसन' की रचना की थी।
नरसिंहवर्मन प्रथम: वह पुलकेशिन द्वितीय पर अपनी जीत के लिए प्रसिद्ध था जिसने पुलकेशिन द्वितीय के साम्राज्य पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था। उसने वातापिकोंड (वातापी को पराजित करने वाला) की उपाधि धारण की थी। बाद में नरसिंहवर्मन प्रथम ने चोल, चेर, और पांडंयों को भी पराजित किया। ह्वेनसांग ने उसके शासन काल के दौरान ही कांचीपुरम का दौरा किया था। नरसिंहवर्मन प्रथम ने महाबलीपुरम शहर (ममाल्लापुरम) और प्रसिद्ध शैलकृत विशालकाय (एकल पत्थर से बने मकबरा) मंदिरों की स्थापना की थी। दो अभियानों के लिए उसने नौसेना को सीलोन भेजा था।
महेन्द्रवर्मन द्वितीय: विक्रमादित्य प्रथम ने उसकी हत्या कर दी थी।
अन्य पल्लव राजाओं में परमेश्वरवर्मन प्रथम, नरसिंहवर्मन द्वितीय, परमेश्वरवर्मन द्वितीय और नंदीवर्मन द्वितीय शामिल थे।
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