आत्मविश्वास बढ़ाने के अचूक टिप्स

Oct 3, 2019, 10:51 IST

प्राचीन गुरुकुल परंपरा से लेकर आज और आगे भी शिक्षा का महत्व कभी कम नहीं होने वाला, पर शिक्षा के साथ जीवन को समझने और मूल्यों-संस्कारों के साथ आगे बढ़ने की जो नींव बचपन से लेकर किशोरावस्था के बीच हमारे गुरुजन डालते हैं, उसी पर आगे चलकर हम कामयाबी की मजबूत इमारत खड़ा करने में समर्थ हो पाते हैं। बच्चों को समझने और उन्हें खुद पर भरोसा करना सिखाने में गुरुजनों की भूमिका कितनी बड़ी होती है.

How to build self-confidence among the school students?
How to build self-confidence among the school students?

प्राचीन गुरुकुल परंपरा से लेकर आज और आगे भी शिक्षा का महत्व कभी कम नहीं होने वाला, पर शिक्षा के साथ जीवन को समझने और मूल्यों-संस्कारों के साथ आगे बढ़ने की जो नींव बचपन से लेकर किशोरावस्था के बीच हमारे गुरुजन डालते हैं, उसी पर आगे चलकर हम कामयाबी की मजबूत इमारत खड़ा करने में समर्थ हो पाते हैं। बच्चों को समझने और उन्हें खुद पर भरोसा करना सिखाने में गुरुजनों की भूमिका कितनी बड़ी होती है, बता रहे हैं अरुण श्रीवास्तव...

हम में से हर किसी के लिए बचपन के दिन कभी न भूलने वाले पल होते हैं। घर से लेकर मोहल्ले और स्कूल तक। उन दिनों की शरारतों और यादों के बारे में सोचकर आज भी हम सभी के चेहरों पर मुस्कान आ ही जाती है। अगर स्कूलों की बात करें, तो हर किसी को अपना कोई न कोई अध्यापक जरूर याद होगा। कोई प्यार से सिखाने-पढ़ाने के लिए तो कोई अपनी मार के लिए याद किए जाने वाले। हां, यह जरूर है कि उस समय किसी टीचर ने अगर किसी शरारत पर पिटाई भी की, तो सिर्फ अनुशासन का महत्व समझाने के लिए। लड़कपन में परिपक्वता न होने के कारण ज्यादातर बच्चों का ध्यान पढ़ाई की बजाय खेल और शरारतों की तरफ कहीं ज्यादा होता है। उस दौरान हम में से ज्यादातर लोगों को टीचर की डांट या मार जरूर याद होगी। तब भले ही टीचर हिटलर लगे हों, पर आज उस समय को याद करके हम सब अपने टीचर के प्रति बार-बार शुक्रगुजार होते हैं। अगर उस समय उन्होंने अनुशासन का पाठ नहीं पढ़ाया होता, तो शायद हम अपने जीवन में कामयाबी की ऊंचाइयां नहीं छू रहे होते।

मूल्यों-संस्कारों से पहचान

प्राचीन समय में बच्चों को गुरुकुल भेजने की परंपरा थी, जहां शिक्षार्थी कई वर्षों तक गुरु के साथ रहकर विद्यार्जन के साथ आत्मनिर्भरता और जीवन जीने का पाठ सीखते थे। वहां राजकुमार और आम जन के बच्चे सभी आते थे। पर वहां सब बराबर थे। गुरुकुल में न तो कोई बड़ा होता था और न कोई छोटा। सभी को एक जैसी शिक्षा और एक जैसे संस्कार दिए जाते थे। सबसे बड़ी बात उन्हें सबसे पहले इंसान होना सिखाया जाता था। छोटे-बड़े का सम्मान करना बताया जाता था। यही कारण है कि वहां से निकले विद्यार्थियों के लिए उनके गुरु ईश्वर की तरह पूज्यनीय होते थे।

समझें अपनी जवाबदेही

शिक्षक आज भी सबसे सम्मानित पेशे में से एक है। शिक्षण का कार्य अन्य पेशों की तरह सिर्फ एक नौकरी करना नहीं है। समाज और देश को सही राह पर आगे बढ़ाने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी अध्यापकों पर ही होती है। किसी भी देश के बच्चों में समुचित मूल्यों के बीज अध्यापक ही बोते और संस्कारों के रूप में उसकी निराई-गुड़ाई करके उसे बड़ा करते हैं। इन मूल्यों-संस्कारों के साथ बड़े होने वाले युवा ही एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण करते हैं, पर विडंबना यह है कि आज के समय के ज्यादातर शिक्षक इस पेशे को महज एक नौकरी समझते हुए टाइमपास करने लगे हैं। उनकी न तो पढ़ने में रुचि है और न ही रोचक तरीके से पढ़ाने में। आज देश को समर्पित अध्यापकों की बहुत जरूरत है, पर इस पेशे में उसी को आना चाहिए जिसमें पढ़ने-पढ़ाने का पैशन हो। जो बदलते जमाने की जरूरतों को समझते हुए बच्चों का मार्गदर्शन कर सकें।

जरूरत इनोवेशन की

कोई भी बच्चा तभी पढ़ाई में रुचि ले पाता है, जब उसके टीचर उसे प्रेरित कर सकें। इसके लिए सिर्फ उबाऊ किताबी पढ़ाई की बजाय बच्चों की रुचियों को जान-समझ करके उन्हें उसी तरह से समझाकर पढ़ाने की जरूरत होती है। यह ठीक है कि टीचर्स की संख्या कम होने के कारण एक-एक बच्चे पर ध्यान देना मुश्किल होता है, लेकिन यह तो हो सकता है कि पढ़ाते समय यह देखा जाए कि कैसे सामूहिकता में विद्यार्थियों की समझ-बूझ को बढ़ाया जाए।

पास-फेल से परे

पारंपरिक परीक्षा पद्धति में पढ़ाई में मन लगा पाने वाले बच्चों को फेल करके उन्हें हिकारत का पात्र बना दिया जाता है। अच्छा अंक पाने वाले बच्चों की तुलना में उन्हें निकम्मा समझ लिया जाता है। अच्छे अंक न पाने या फिर फेल हो जाने के कारण ऐसे बच्चों को स्कूल और घर में जो डांट-फटकार मिलती है, उससे वे निराश-हताश होने के साथ-साथ प्रतिक्रियावादी भी हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में कुछ बच्चे कुसंगति के शिकार होकर राह से भटक भी जाते हैं। माता-पिता के साथ-साथ अध्यापकों को भी यह बात समझनी चाहिए कि फेल होने या कम अंक पाने का मतलब निकम्मा होना नहीं है। हमारे आसपास ही ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें टॉपर बच्चे आगे जाकर फिसड्डी हो गए, जबकि निकम्मे समझे जाने वाले बच्चों ने कामयाबी की नई इबारत लिखी।

समझें भीतरी टैलेंट

कोई भी बच्चा नकारा या निकम्मा नहीं होता। हर किसी में कोई न कोई टैलेंट छिपा होता है। हम उसके उस छिपे हुए टैलेंट को समझ नहीं पाते और उसे अंकों के तराजू पर तोलते रहते हैं। पैरेंट्स के अलावा टीचर्स को भी बच्चे में वह टैलेंट ढूंढ़कर उसे उसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। काउंसलिंग की प्रक्रिया में मैंने यह देखा है कि गार्जियन जब मेरे कहे अनुसार अपने बच्चे के पैशन को समझ कर उसे उस दिशा में आगे बढ़ने में सहयोग करते हैं, तो इसके अप्रत्याशित नतीजे दिखाई दिए हैं। दूसरी तरफ, आपके आसपास ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे, जब पैरेंट्स ने इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढ़ाई के लिए अपने बच्चों पर इतना दबाव बनाया जिसे वे सह नहीं सके।

सिखाएं खुद पर भरोसा करना

अच्छा अंक न पाने, होमवर्क सही तरीके से न कर पाने या अन्य बच्चों की तरह पढ़ाई में लगातार अच्छा प्रदर्शन न कर पाने की स्थिति में यह जरूर देखा जाना चाहिए कि आखिर वह बच्चा ऐसा क्यों नहीं कर पा रहा है? आखिर क्या वजह है कि वह बच्चा पढ़ाई में रुचि नहीं ले पा रहा है? अगर किताबों में उसकी रुचि नहीं है, तो आखिर उसे किस चीज में मजा आता है? खेल-कूद, गाना-बजाना, डांस, कुकिंग, पेटिंग, तोड़ने-बनाने की तकनीक, गेमिंग, कोडिंग... कुछ तो होगा, जिसकी बात करने पर वह खुशी से उछल पड़ता होगा। उसके इस पैशन को जानें-पहचानें। आसानी से न समझ पाएं, तो कुछ दिन तक फिर से उसकी गतिविधियों, उसकी आदतों पर बारीकी से गौर करें। उसे क्या अच्छा लगता है और क्या खराब, इसे जानने का प्रयास करें। इसके बाद उसे निकम्मा समझने की बजाय उसे उसके टैलेंट पर भरोसा करने में उसका साथ दें। जहां तक हो सके, उसे उसी दिशा में आगे बढ़ने में सहयोग करें।

Jagran Josh
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Education Desk

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