ग्राम स्वराज की मेरी कल्पना यह है कि एक पूरा गणतंत्र हो, जो अपनी सबसे जरूरी आवश्यकताओं के लिए भी अपने पडोसियों पर निर्भर न हो।
सालों पहले महात्मा गांधी के दिए ये विचार आज के संदर्भ में भी सटीक हैं। ऐसा हो भी क्यों न, भारत जैसे देश में जहां 60 फीसदी से ज्यादा लोग कृषि से जुडे हों, कुल जीडीपी में जिसकी हिस्सेदारी 18 फीसदी के आस पास हो, तो उसकी खुशहाली बगैर गांवों की खुशहाली के कैसे मुमकिन है? अमूमन कहा भी जाता हैं कि किसी भवन की मजबूती उसके आकर्षक शिखरों से नहीं, बल्कि उसके आधार से तय होती है। हमारा आधार गांव है। गांव के विकास के बिना देश के विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आज शहरों की चकाचौंध करने वाली तरक्की गांवों के बदौलत ही है। यह विलेज इकोनॉमी ही है जो देश की तरक्की का ताकतवर इंजन बन रही है। तरक्की का यह सिलसिला आगे भी तेजी से चलता रहे, इसके लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सेहत अव्वल रहना जरूरी है। इस बात को सरकार अच्छी तरह समझ रही है। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षो में सरकारी योजनाएं गांवों की तरफ उन्मुख हुई हैं, जिनमें प्रधानमंत्री ग्राम सडक योजना, रुरल हाउसिंग स्कीम, संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना, स्वर्ण जंयती ग्राम स्वरोजगार योजना, मनरेगा, प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजनाएं खास हैं। सरकार ही नहीं निजी क्षेत्र भी अपनी नई योजनाएं गांव को फोकस करके निकाल रही है और इसमें उन्हें कामयाबी भी मिल रही है। दरअसल पिछले दो दशकों से देश में औद्योगिकीकरण का पहिया तेजी से घूमा है। इस दौरान देश में बाजारवादी संस्कृति बढी है, नए अवसर भी पैदा हुए हैं, तो लोगों के पास धन की आमद में गुणात्मक वृद्धि हुई है। इन सबका सीधा असर हमारे जीवन की गुणवत्ता पर पडा है। पर ज्यादा फायदे में शहर ही रहे। जो इस दौरान तेजी से विकास के एपीसेंटर्स व पूंजीगत गतिविधयों के हार्टलैंड बने। विकास की यह रफ्तार गावों से लोगों के शहरों की ओर पलायन का कारण भी बनी। जहां बेहतर जीवन की तलाश में हर रोज लोग शहरों का रुख कर रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक आने वाले सालों में देश में काफी संख्या में लोग शहरों की ओर पलायन करेंगे। इसलिए यह आज की जरूरत है कि शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर पर इस दबाव पर काबू पाया जाए, लोगों को उनके स्थान पर ही रोजगार व बाकी सहूलियतें मुहैया कराई जाएं। इन्हीं सब चीजों के कारण आज ग्राम आत्मनिर्भरता एक महत्वपूर्ण मसला बन चुका है। इसके अंर्तगत, आने वाले सालों में गांवों ही में रोजगार, व्यवसाय, स्वास्थ्य, संचार, शिक्षा के इतने अवसर पैदा किए जाएंगे कि शहर पलायन ग्रामीणों की मजबूरी नहीं बनेगी। देश के गांवों का वृहत विकास तभी संभव है, जब अधिक से अधिक प्रोफेशनल्स को वहां रोजगार के मौके मिलेंगे। इस बात को ध्यान रखते हुए सरकारी और निजी क्षेत्रों के सहयोग से ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास से संबंधित काफी कोर्स विभिन्न संस्थानों द्वारा चलाए जा रहे हैं और ट्रेंड प्रोफेशनल्स गांव में रहकर ही कॅरियर की ऊंची उडान भर रहे हैं और साथ ही सामाजिक दायित्व का निवर्हन करके आत्मसंतोष भी प्राप्त कर रहे हैं। अगर आप भी गांव में रहकर देश के विकास में भागीदार बनना चाहते हैं, तो आपके पास अवसरों का पिटारा है।
गांधी का ग्राम दर्शन
महात्मा गांधी का ग्राम दर्शन जीवन की आम जरूरतों से उपजा है। ये जरूरतें होती तो सामान्य हैं लेकिन इनके बिना जीवन चलाना मुश्किल होता है। ग्राम स्वराज, महात्मा गांधी की ग्रामीण आत्मनिर्भरता को प्रोत्साहित करती एक परिकल्पना है जिसकी आखिरी मंजिल राम राज्य है। जाहिर है इसका रास्ता गांवों की मेडों से होकर जाएगा। गांधी का ग्राम स्वराज कहता है कि ग्रामों में पंचायतें ही विकास के लिए जिम्मेदार होंगी। जहां न कोई बाहरी दखल होगा, न ही किसी प्रकार की परनिर्भरता। असल में गांधी जी ने भविष्य में गांवों की बढने वाली भूमिका का अदांजा पहले ही लगा लिया था। खुद उनके ही शब्दो में संतुलित विकास की पहली और आखिरी शर्त गांव का विकास है और ग्रामोद्योग इस शर्त को पूरी करने का माध्यम।
नानाजी देशमुख का ग्राम प्रेम
जब भी देश में ग्रामीण क्षेत्रों के विकास व उसके अभ्युदय की बात आएगी, नानाजी देशमुख का नाम भी उसके साथ जरूर लिया जाएगा। नाना जी देशमुख ने अपना पूरा जीवन देश के उन सुदूर पिछडे ग्रामों के विकास के नाम कर दिया, जो अमूमन सरकार के डेवलेपमेंट रडार की जद में नहीं आ पाते। उत्तर प्रदेश के चित्रकूट को अपने सामाजिक गतिविधियों को केंद्र बनाने वाले नानाजी के ही प्रयासों की बदौलत आज यूपी, एमपी के करीब पांच सौ गांवों में सामाजिक पुनर्निर्माण कार्यक्रम को अंजाम दिया जा रहा है। नाना जी के हर हाथ को देंगे काम हर खेत को देंगे पानी के नारे की बदौलत इन गांवों में विकास का नया आयाम मिला है। इसकी सबसे खास बात है कि इन कामों में विशुद्ध ग्रामीण संसाधनों की ही मदद ली जा रही है। पशुधन, उर्वर खेती, ग्राम आधारित कुटीर उद्योग, वृक्षारोपण आदि के माध्यम से ही इस क्षेत्र में ग्रामीणों, वनवासियों को रोजगार के विकल्प मिले हैं। दीनदयाल शोध संस्थान आए तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने भी उनके काम की सराहना करते हुए, विकास के उनके ग्रामीण मॉडल को देश की जरूरत बताया था।
विकास का पाथ फाइंडर है गांव
चरखा एक यंत्र भर नहीं बल्कि हिदुस्तान की कंगालियत मिटाने का एक अस्त्र है, बताने की आवश्यकता नहीं कि जिस रास्ते से भुखमरी मिटेगी, स्वराज भी उसी रास्ते आएगा। भले ही गांधी के ये शब्द एक सदी पुराने हो चुके हों, लेकिन चरखे के धागों से जुडे आर्थिक आत्मनिर्भरता के इस विचार की अहमियत अभी भी है। देखा जाए तो प्रांरभ से ही ग्रामीण क्षेत्रों में लोग अपनी खाद्य जरूरतों से लेकर वस्त्र, मकान, रोजमर्रा की चीजों का उत्पादन स्थानीय स्तर पर करते थे। इसके कई फायदे थे एक तो गांववासियों की जीवनोपयोगी चीजों के लिए बाहर पर निर्भरता कम थी, तो गांव में ही रोजगार के अवसर भी पनपते थे। हां, यह जरूर है कि इन चीजों के व्यवसायिक उत्पादन का लाभ उत्पादकों को नहीं मिल पाता था। पर आज ग्रामवसियों को उनके उत्पादन का पूरा फायदा देने के लिए सरकार प्रतिबद्ध है। कई विलेज सेंट्रिक योजनाओं व ग्रामीण क्षेत्रों में किए भारी निवेश के चलतेआज विलेज इकोनॉमी देश की इकोनॉमी की धडकनें तय कर रही हैं। जीडीपी से लेकर कॉरपोरेट जगत के तिमाही, छमाही नतीजों पर यह असर डालती है। ऐसे में यदि इस क्षेत्र को देश के विकास का पाथ फाइंडर कहा जाए तो कुछ भी गलत नहीं है।
कोर्स व योग्यता
ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अंतगर्त कृषि से लेकर, पशुपालन, कपास, रेशम निर्माण के साथ स्वरोजगार के कई दूसरे साधन को प्रमुखता दी जाती है। देश के अलग अलग संस्थान इन क्षेत्रों में कोर्स ऑफर करते हैं, जिनमें दाखिले की न्यूनतम योग्यता 12वी उत्तीर्ण माना जाता है तो वहीं कई संस्थानो में 10 वीं के बाद से डिप्लोमा कोर्स का भी प्रावधान है। कहने का आशय यह है कि इसमें मैनेजमेंट कोर्स से लेकर स्व्रोजगार से संबंधित कई तरह के कोर्स उपलब्ध हैं, जिन्हें आप गांव में रहकर कर सकते हैं।
राहें और भी
एग्रो इकोनॉमी आज रोजगार की राह में बेहतरीन अवसरों का सृजन कर रही है, जिसमें कुटीर से लेकर मझोले, बडे उद्योग तक अपनी जगह बनाते दिख रहे हैं। जहां कुटीर उद्योग में नाम मात्र की पूंजी व मानव शक्ति की दरकार होती हैं, तो वहीं कई उद्योग ऐसे भी हैं, जहां आप कुछ निवेश के जरिए खुद का व्यवसाय शुरू कर सकते हैं। आत्मनिर्भरता की दिशा में ये उद्योग अपनी बडी भूमिका तलाश चुके हैं। महिलाओं के लिए भी यहां अच्छे अवसर हैं। सहकारी उद्यम, स्वयं सहायता समूह,सस्ते ऋण, तकनीकी सहायता जैसे प्रयास इस क्षेत्र की संकरी पगडंडियों को कामयाबी के राजपथ में बदल रहे हैं। स्थानीय या ग्राम स्तर पर मसाला, कपास छंटाई, फूड प्रोसेसिंग, पोल्ट्री, रुई, आयल, जूट, गन्ना, राइस मिल्स आदि विलेज इकनॉमी से सीधा संबध रखते हैं।
फ्यूचर प्रॉसपेक्ट
इन दिनों ग्रामीण क्षेत्रों में इंडस्ट्री का तेजी से प्रवेश हो रहा है। एसोचैम के एक अध्ययन के मुताबिक, आज रूरल रिटेल मार्केट का आक ार 113 बिलियन डॉलर का हो चुका है जो देश के कुल रिटेल मार्केट का 40 प्रतिशत है। इस बडे मार्केट के अपार फायदों को पाने के लिए देश के बडे बडे कॉरपोरेट गु्रप्स गांवों का रुख कर रहे हैं। केवल यही नहीं 425 बिलियन डॉलर का रूरल कंज्यूमर मार्केट भी आज मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए आकर्षण का केंद्र बन रहा है। इसके साथ रूरल सर्विसेज इंडस्ट्री व 44 फीसदी वार्षिक की दर से बढती रूरल हेल्थ केयर इंडस्ट्री गांवों में बेशुमार अवसर पैदा कर रही है। देखा जा रहा हैकि ग्रामीण मार्केट को कब्जे में लेने के लिए कंपनियों में एक होड सी मची है, जो ग्राम व ग्रामीण युवाओं दोनो को फायदा पहुंचा रही हैं। देश में एग्रो इकनॉमी को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने छोटे बडे स्तर पर कई संस्थानों की स्थापना की है। जिसमें देश के मैनेजमेंट संस्थानों के अलावा कृषि विश्वविद्यालय हैं।
विलेज इकनॉमी के पावर बूस्टर्स
इस क्षेत्र में ऐसे उद्योगों को शामिल किया जाता है, जिनका संबंध कृषि व संबधित क्षेत्रों से हैं। आज ये चीजें पूरी तरह प्रोफेशनल हो चुकी हैं। जहां कामयाबी के लिए जरूरी है थोडा धर्य व पूरा समर्पण। अगर आप में इस तरह के गुण हैं, तो आप अपनी योग्यता और रुचि के अनुरूप कोर्स को वरीयता दे सकते हैं। कुछ प्रमुख क्षेत्र जो आजकल के युवाओं की पसंद बनते जा रही है-
रूरल में मैनेजमेंट
देश की इकोनॉमी में गांवों का योगदान कोई रहस्य नहीं रह गया है। खुाद भारत जैसे देश में जहां बहुसंख्य आबादी गांवों मे रहती हो, रूरल मैनेजमेट की अवधारणा और पुख्ता हो जाती है। दरअसल प्रोफशनल रूरल मैनेजर्स का काम ग्रामीणों की विकास परक गतिविधयों में सहयोग व सलाह देना होता है। इन सलाहों में फसल उत्पादन, फसलों के व्यवसायिक प्रबंधन, जल संचयन, टीकाकरण, मृदा सुधार, उद्यमशीलता जैसी चीजें होती हैं। विकास के चक्के को तेज करने के लिए रूरल मैनेजर्स की भूमिका अहम मानी जा रही है। एक ओर जहां ज्यादातर प्रबंधन कॉलेज रूरल मैनेजमेंट को पाठ्यक्रम का हिस्सा बना रहे हैं, तो वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत प्रशासनिक अधिकारी, डॉक्टर, बैंककर्मी, एनजीओ भी तेजी से रूरल मैनेजमेंट के गुर सीख रहे हैं।
रूरल कंज्यूमर मार्केट
आज रूरल कंज्यूमर मार्केट देश के सबसे तेजी से बढते सेक्टर्स में एक है। इसकी ग्रोथ रेट का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता हे कि 2004-05 की तुलना में आज इस क्षेत्र का विस्तार दोगुना हो चुका है। देश में रूरल कंज्यूमर मार्केट का कुल बाजार 425 बिलियन डॅालर के आंकडे को छू रहा है। इसका यह विस्तार इन दिनों ग्रामीण युवाओं के सपनों को भी विस्तार दे रहा है।अपने नेटवर्क के प्रसार में आज कंपनियां बडी संख्या में योग्य ग्रामीण को नियुक्तियां दे रही हैं।
एडवांटेज : माइक्रोफाइनेंस
बांग्लादेश ग्रामीण बैक के पूर्व प्रमुख यूनिस खान के माइक्रो-फाइनेसिंग के सफल प्रयोग के बाद पूरी दुनिया ने इसके महत्व को समझा है। असल में माइक्रोफाइनेसिंग वे छोटे लोन होते हैं, जिनका इस्तेमाल दुकानदार, फेरीवाले, डेयरी, पोल्ट्री समेत दूसरे कम पूंजी वाले व्यवसाइयोंकी वित्तीय जरूरतें पूरी करने में होता है। एक अनुमान के मुताबिक आज देश के करीब 10 करोड परिवारों को माइक्रोफाइनेसिंग सुविधाओं की दरकार है। पर मौजूदा माइक्रोलोनिंग सेवाएं संभावित ग्राहकों में से केवल 10 फीसदी तक ही पहुंच पाई है। ऐसे में इस क्षेत्र में आज जॉब्स की जोरदार संभावनाएं हैं। देश में नाबार्ड, सिडबी, एसबीआई एसोसिएट्स समेत कई संस्थाएं माइक्रोलोनिंग के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं।
हार्टीकल्चर है हॉट
बागवानी का क्षेत्र वैसे तो कृषि से जुडा हुआ है, लेकिन आज बागवानी उत्पादों की बढी मांग के बीच यह क्षेत्र एक पृथक व्यवसायिक सेक्टर के तौर पर उभरा है। बागबानी के अंर्तगत सभी प्रकार के फलों, सब्जियों का उत्पादन, कीटों की रोकथाम, उत्पादन बढोत्तरी जैसी चीजें आती हैं। इस क्षेत्र के मौजूदा ढांचे में जॉब्स की कोई कमी नही है। इस क्षेत्र में आप बतौर विशेषज्ञ, सुपरवाइजर, हार्टीकल्चर स्पेशलिस्ट, फ्रूट वेजीटेबल इंस्पेक्टर काम कर सकते हैं।
सेरीकल्चर में संवारें कॅरियर
पीलीभीत में रेशम अधिकारी एमके गौतम का कहना है कि भारत में, जहां औसत तापमान 16 से 31 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है, रेशम कीट पालन के लिए एक आदर्श स्थान है। इसी के चलते देश में सिल्क की पांच तरह की किस्मों का उत्पादन संभव हो पाता है। वैसे भी इन दिनों रेशम व रेशम से बने उत्पादों की मांग पूरी दुनिया में बढी है। लिहाजा इसका उत्पादन बढाने की जरूरत है, जिसके लिए यहां भारी निवेश व कार्य दक्ष लोगों की भी दरकार होगी। ऐसे में इस फील्ड में की गई थोडी सी मेहनत आपको बेशुमार तरक्की दिला सकती है। देश के ज्यादातर कृषि विवि ने सेरीकल्चर को कोर्स के तौर पर समायोजित किया है।
डेयरी में डेप्थ नॉलेज
डेयरी, पशुपालन हमेशा से ही कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ रही है। पहले जहां डेयरी प्रोडेक्ट्स के उत्पादन का लक्ष्य निजी जरूरतें पूरी करना हुआ करता था, आज इसने विस्तृत बाजार का रूप ले लिया है। नेशनल सैंपल सर्वे के एक अध्ययन के मुताबिक यह सेक्टर देश में 9.8 मिलयन लोगों को सीधे व करीब इतने ही लोगों क ो अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार दे रहा है। उत्पादन की दृष्टि से आज भारत, दुनिया का सबसे बडा दूध उत्पादक देश हैं जहां विश्व का 13 फीसदी दूध उत्पादित किया जाता है। माना जा रहा है कि बढती मांग के बीच भविष्य में यहां योग्य लोगों की जरूरत होगी।
फिशरी में फिट
देश का विशाल समुद्र तट, नदियां, असंख्य तालाब जैसी प्राकृ तिक परिस्थतियां मत्स्य पालन की असीम संभावनाएं पैदा कर रही हैं। आज देश में 1 करोड से ज्यादा लोग प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से मत्स्य पालन से जुडे हैं। वहीं निर्यात के मामले में भारत की गिनती शीर्ष दस देशों में होती है। नई टेक्नोलॉजी व असरदार सरकारी प्रयासों के चलते इसके मार्के ट में बढत की संभावनाएं जताई जा रही है।
बी-कीपिंग में बेस्ट कॅरियर
शहद, मोम व कुछ खास किस्म की दवा निर्माण में मधुमक्खियां एक प्रमुख जरिया होती हैं। मधुमक्खी पालन आज ग्रामीण क्षेत्रों के साथ साथ अर्धशहरी, कस्बों, शहरों में भी फायदे का व्यवसाय साबित हो रहा है। बेहद कम लागत में शुरू किया जा सकने वाला यह व्यवसाय यद्यपि लघु उद्योगों की ही श्रेणी में आता है, लेकिन इसके फायदों को देखते हुए इसमें प्ाूजी विस्तार व रोजगार की बडी संभावनाएं हैं।
मशरूम का बडा बाजार
पिछले कुछ एक सालों में लोगों में पोषण के बारे में बढी जागरूकता के चलते पूरे देश मे मशरूम की मांग बढी है। आज इसके उत्पादन में वृद्धि के लिए सरकार, ग्राम स्तर पर इसकी खेती को बढावा दे रही है। जिसके तहत उत्पादन जागरूक ता जैसे कार्यक्रम किए जा रहे हैं। कई कृषि विश्वविद्यालयों ने इसको अपने फुल टाइम कोर्स में जगह दी है।
जेआरसी टीम
ग्राम रोजगार
ग्राम स्वराज की मेरी कल्पना यह है कि एक पूरा गणतंत्र हो, जो अपनी सबसे जरूरी आवश्यकताओं के लिए भी अपने पडोसियों पर निर्भर न हो
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