जी-8 देशों का शिखर सम्मेलन
जी-8 देशों का 36वां शिखर सम्मेलन हंट्सविले, ओंटारियो, कनाडा में 25-26 जून, 2010 को सम्पन्न हुआ। शिखर सम्मेलन में जी-8 देशों के नेताओं ने समूह की अंतर्राष्ट्रीय मामलों में आवश्यक व सतत भूमिका पर जोर दिया। 1976 के बाद से कनाडा में यह पांचवां जी-8 देशों का शिखर सम्मेलन था। इसके पहले मोंटेबेल्लो, क्यूबेक (1981), टोरोंटो, ओंटारियो (1988), हेलीफेक्स, नोवा स्कोटिया (1995) और कानानास्किस, अल्बर्टा (2002) में शिखर सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं।
शिखर सम्मेलन के मुख्य मुद्दे
अर्थव्यवस्था: वैश्विक आर्थिक संकट से पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं का उबरना और यूरोपीय ऋण संकट पर सम्मेलन में काफी गंभीरता से चर्चा हुई। फ्रांस और जर्मनी ने बैंकिंग संस्थाओं पर टैक्स लगाने की वकालत की जिसका कई यूरोपीय देशों ने समर्थन किया जबकि अमेरिका व कनाडा ने इसका विरोध किया। हालांकि इसपर अंतिम रूप से फैसला नहीं हो सका।
अंतर्राष्ट्रीय संबंध: सम्मेलन में शामिल शीर्ष नेताओं ने ईरान व उत्तरी कोरिया के परमाणु कार्यक्रम का विरोध किया जिनका कहना था कि इन देशों के परमाणु कार्यक्रम से क्षेत्रीय अस्थिरता पैदा हो सकती है। गाजा पट्टी में आवाजाही पर रोक लगाने के लिए इजरायल की भी आलोचना की गई। उत्तरी कोरिया द्वारा दक्षिण कोरिया के समुद्री जहाज डुबोने का मुद्दा भी सम्मेलन के दौरान उठा। अफगानिस्तान को भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने और क्षेत्रीय सुरक्षा बढ़ाने के लिए 5 वर्ष का समय दिया गया।
गरीब देशों को सहायता: जी-8 देशों ने अंतर्राष्ट्रीय सहायता के रूप में 5 अरब डॉलर देने का वादा किया। इसकी तुलना में 2005 के शिखर सम्मेलन के दौरान कुल 50 अरब डॉलर की सहायता देने का प्रस्ताव किया गया था। इसमें से अधिकांश राशि अफ्रीका व एशिया के गरीब देशों में बांटी जाएगी। वैश्विक आर्थिक संकट की वजह से हाल के दिनों में धनी देशों की वित्तीय स्थिति गड़बड़ाई है जिसकी वजह से इतनी कम सहायता राशि इस वर्ष गरीब देशों को प्रदान की जाएगी।
जी-8 व दक्षिण एशिया
भारत-पाकिस्तान के मध्य शुरू हुए सचिव स्तर की वार्ता का स्वागत करते हुए जी-8 देशों ने कहा कि इस क्षेत्र के सभी देश आपस में एकजुट होकर कार्य करें जिससे क्षेत्र में शांति व स्थिरता सुनिश्चित की जा सके। गौरतलब है कि जून 2010 में भारत-पाक के मध्य सचिव स्तर की वार्ता हुई थी।
जी-8 समूह: एक परिचय
काफी लंबे अर्से से दुनिया के सबसे धनी देश अपना एक संगठन बनाने का प्रयास कर रहे थे। इसी स्वप्न को पूरा करने के लिए 1976 में दुनिया के सात सबसे धनी व औद्योगिकीकृत देशों ने मिलकर जी-7 समूह का गठन किया था। हालांकि इसके पूर्व 1975 में फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति गिस्कार्ड इस्टेंग और जर्मनी के चांसलर हेल्मुत स्मिड्ट ने जी-6 देशों के समूह का सम्मेलन बुलाया था। तब इसमें फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, यूनाईटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा शामिल थे। बाद में 1997 में इसका विस्तार करते हुए इसमें रूस को भी शामिल किया गया। हालांकि रूस की तत्कालीन आर्थिक स्थिति को देखते हुए समूह के कई देश रूस को इसमें शामिल करने के इच्छुक नहीं थे। फिर भी रूस के काफी अनुरोध करने के बाद उसे समूह का सदस्य बना लिया गया। इसके अतिरिक्त 1981 से ही यूरोपीय संघ का अध्यक्ष भी शिखर सम्मेलनों में भाग लेता है। 21वीं शताब्दी में जी-8 को लेकर काफी तीखी बहस जारी है। इसके कई सदस्य देश भी इसके विस्तार के पक्ष में हैं। लेकिन कनाडा, जापान और यूनाईटेड किंगडम जैसे देश में इसके फॉर्मेट में किसी भी तरह के फेरबदल के विरोध में है। यद्यपि इस समूह में फ्रांस जैसे देश भी हैं जो जी-5 अर्थात ब्राजील, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और मैक्सिको व किसी एक मुस्लिम देश को इसमें शामिल करके इसे जी-8 से जी-14 समूह में परिवर्तित करना चाहता है।
36वें शिखर सम्मेलन में शामिल होने वाले जी-8 के नेता
निकोलस सरकोजी (राष्ट्रपति, फ्रांस), एंजेला मर्केल (चांसलर, जर्मनी), सिल्वियो बर्लुस्कोनी (प्रधानमंत्री, इटली), नाओतो कान (प्रधानमंत्री, जापान), दिमित्री मेदवेदव (राष्ट्रपति, रूस), डेविड कैमरून (प्रधानमंत्री, ब्रिटेन), बराक ओबामा (राष्ट्रपति, सं. रा. अमेरिका), स्टीफेन हार्पर (प्रधानमंत्री, कनाडा) व हरमन वान रॉमपुए (अध्यक्ष, यूरोपीय संघ).
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