पर्यावरण सेवाओ, मिट्टी और जल संसाधनों को जारी रखने के लिए वन ही प्राथमिक स्रोत हैं इसीलिए जंगलो की क्षमता बढ़ाने का अर्थ है मिट्टी के लचीलेपन मे बढ़त, जल एंव कृषि मे बढ़त जोकि ग्रामीण रोज़गार की प्रमुख शरणस्थली हैं. हरित (वन्य) आवरण प्राकृतिक संसाधनों के लचीलेपन और टिकाउ कृषि ढांचे के लिए पहली आवश्यकता है. इसीलिए वनों को कृषि, ग्रामीण आर्थिक विकास और प्राथमिक उत्पादन क्षेत्र के लिए बुनियादी प्राकृतिक संसाधन ढांचे के रूप मे परिभाषित किया जाना चाहिए. वनों का अधिक से अधिक घनत्व न केवल आवश्यक पर्यावरणीय सेवाओं के लिए ज़रूरी है बल्कि यह समुदायों के लिए बड़ी संख्या मे आवश्यक सामग्री भी उपलब्ध कराते हैं. वनों में किया गया निवेश वास्तव मे विकास के लिए किया गया निवेश है.
इस समय प्रति व्यक्ति वन क्षेत्र 0.064 हेक्टेयर है जोकि वैश्विक औसत का 1/10 भाग है. मानव और पशु जनसंख्या के कारण भारी दबाव के कारण भारत के 41 प्रतिशत वन क्षेत्र को नुकसान पहुचा है. घने जंगल तेज़ी से खत्म हो रहे हैं साथ ही उनकी उत्पादकता भी लगातार कम हो रही है. वर्तमान मे वनो की क्षमता वैश्विक औसत की एक तिहाई रह गयी है. वनों का उनकी क्षमता से अधिक उपयोग ,कृषि तथा अन्य उपयोग के लिए 1950 से 4.5 मिलियन हेक्टेयर जंगलो की सफायी, लगभग दस मिलियन हेक्टेयर क्षैत्र असमान उपज के अधीन होना, जंगलो की लगातार घटती हुई संख्या का मुख्य कारण है.
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