शिक्षा के क्षेत्र में जॉब का परिदृश्य

संचार तकनीकी की सुलभ उपलब्धता से अब यह संभव हो सका है कि देश के प्रत्येक अध्यापक के संबंध में सभी आवश्यक जानकारी एक साथ एकत्रित हो सके। उसमें परिवर्तन लगातार समाहित होते रहें तथा नीति निर्धारकों तथा प्रबंधन का उत्तरदायित्व निभानेवालों को यह लगातार आवश्यकता पडऩे पर उपलब्ध कराई जा सके।

Jul 27, 2011, 13:49 IST

शिक्षा के क्षेत्र में जॉब का  परिदृश्य


 

 

जगमोहन सिंह राजपूत

वरिष्ठ शिक्षाविद एवं पूर्व चेयरमैन

एनसीईआरटी



संचार तकनीकी की सुलभ उपलब्धता से अब यह संभव हो सका है कि देश के प्रत्येक अध्यापक के संबंध में सभी आवश्यक जानकारी एक साथ एकत्रित हो सके। उसमें परिवर्तन लगातार समाहित होते रहें तथा नीति निर्धारकों तथा प्रबंधन का उत्तरदायित्व निभानेवालों को यह लगातार आवश्यकता पडऩे पर उपलब्ध कराई जा सके। जिला स्तर की सूचना अब डी.आई.एस.ई. डिस्ट्रिक्ट इनफॉर्मेशन इन स्कूल एजूकेशन के अंतर्गत एकत्रित होती है तथा इसका उपयोग तथा उपलब्धता सार्वभौमिक है। 2005-06 में कक्षा आठ तक 46.9 लाख अध्यापकों का ब्यौरा उपलब्ध था। यह संख्या 2003-04 में 36.7 लाख थी तथा 2004-05 में 41.7 लाख थी। इससे प्रारंभिक स्तर पर अध्यापकों की बढ़ती मांग का अनुमान लगाया जा सकता है। लगभग 78.24 प्रतिशत अध्यापक ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत हैं जहां लगभग 87.24 प्रतिशत स्कूल चल रहे हैं। शिक्षा के मौलिक अधिकार अधिनियम के 01 अप्रैल 2010 से लागू होने  के बाद अनुमानत: पांच वर्षों में 13 लाख और अध्यापकों की इस स्तर पर आवश्यकता होगी। इस स्तर पर शिक्षा के सार्वभौमिक प्रसार का प्रभाव माध्यमिक स्तर, उच्चतर माध्यमिक स्तर तथा विश्वविद्यालय स्तर पर भी लगातार पड़ेगा। देश को बड़ी संख्या में प्रतिवर्ष अतिरिक्त अध्यापकों की आवश्यकता होगी। देश के 145 जिलों में जो 35 राज्यों व केेंद्र शासित क्षेत्रों से हैं, में महिला अध्यापकों का प्रतिशत 50 से अधिक है। कुल मिलाकर देश में यह 40.33 प्रतिशत है। शहरी क्षेत्रों में 64.02 प्रतिशत तथा ग्रामीण में 34.00 प्रतिशत है। आने वाले वर्षों में कई लाख प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति होनी चाहिए। प्रशिक्षण संस्थानों में भी टीचर एडुकेटर्स की हजारों की संख्या में नियुक्ति करनेे की आवश्यकता है। अध्यापन का क्षेत्र अब नवाचारों तथा नई तकनीकी तथा लगातार बदलती सामग्री तथा विधाओं के कारण अत्यंत सजीव तथा चुनौतीपूर्ण बनता जाएगा। यह युवाओं को देशसेवा, समाज सेवा तथा भविष्य निर्माण का अभूतपूर्व अवसर प्रदान करता है। 2007-08 के आंकड़ों के अनुसार देश में सात लाख छियासी हजार प्राइमरी स्कूल, 3 लाख 20 हजार मिडिल स्कूल तथा एक लाख इकहत्तर माध्यमिक स्कूल थे। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अनुमोदित विश्वविद्यालय इस समय 506 हैं।  कॉलेज भी 20-22 हजार के आसपास हैं। शिक्षक प्रशिक्षण के क्षेत्र में बारह हजार के लगभग संस्थान हैं। कुल मिलाकर शिक्षा क्षेत्र में हर स्तर पर जॉब उपलब्ध हैं और इनकी संख्या भी काफी ज्यादा है। यह देश के कोने-कोने में  फैले हुए हैं। इनमें सामान्य स्थितियों से आने वाले विद्यार्थियों के लिए अन्य क्षेत्रों के मुकाबले ज्यादा संभावनाएं उपलब्ध हैं।


इस समय जनंसख्या के दृष्टिकोण से भारत को युवाओं का देश माना जाता है। 15 वर्ष से नीचे के आयुवर्ग में 18 प्रतिशत तथा 35 वर्ष के नीचे के आयु वर्ग में 65 प्रतिशत जनसंख्या है। भारत के गांव-गांव में शिक्षा का प्रसार हुआ है तथा अब पढ़े-लिखे युवाओं की एक बहुत बड़ी संख्या ग्रामीण इलाकों में उपलब्ध है, शहरों में रहने और पढऩे वाले विभिन्न प्रकार के जॉब करने के लिए तैयारी करते हैं। बड़ी संख्या में लड़के और विशेषकर लड़कियां अध्यापन के क्षेत्र में  जाना चाहती हैं। वे सब ऐसा कई कारणों से करते हैं। आर्थिक, सामाजिक तथा परंपरागत कारण भी इस प्रकार के निर्णय लेने में कारण बनते हैं। अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में अध्यापकों को परंपरागत सम्मान मिलता है। उनके वेतनमान भी अब काफी सीमा तक सम्मानजनक माने जाते हैं। इनमें पिछले कुछ दशकों में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है। यह भी अब सभी को ज्ञात है कि इस क्षेत्र में जॉब संख्याएं लगातार बढ़ती रहेंगी तथा जॉब में प्रोन्नति की संभावनाएं भी बनी रहेंगी।

इस समय शिक्षा व्यवस्था में एक बड़ा विभाजन तेजी से उभरा है। देश में सरकारी स्कूल, मान्यता प्राप्त गैर सरकारी स्कूल जिनमें पब्लिक स्कूल शामिल हैं तथा कुछ प्रकार के गैर मान्यता प्राप्त नर्सरी, केजी तथा प्राइमरी स्तर के स्कूल शामिल हैं। वे लोग जो आवश्यक प्रशिक्षण प्राप्त कर लेते हैं, सरकारी स्कूलों में ही जॉब करना पसंद करते हैं। बड़े शहरों में पारिवारिक तथा दूरी इत्यादि के कारण पब्लिक स्कूलों में काम करना भी पसंद किया जाता है। इन स्कूलों की समाज के वर्ग विशेष में एक प्रतिष्ठा बन जाती है और अध्यापकों का मनोबल बढ़ाती है तथा भावी अध्यापकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बनती है। अध्यापक का पद स्कूल शिक्षा में प्राप्त करने के लिए प्रशिक्षण प्राप्त करना आवश्यक माना जाता है। नर्सरी तथा प्राइमरी शिक्षक बनने के लिए अलग-अलग दो वर्ष के पाठ्यक्रमों का प्रावधान है जो अधिकांश राज्यों में कक्षा 12 पास करने के बाद किए जा सकते हैं। स्नातक स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद माध्यमिक तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर पर प्रशिक्षण सामान्यत: एक वर्ष का होता है जो बी.एड. की डिग्री प्रदान करता है। प्रायोगिक तौर पर देश के चार क्षेत्रीय शिक्षा संस्थानों में भुवनेश्वर, भोपाल, अजमेर तथा मैसूर में दो वर्षीय बी.एड. के कार्यक्रम सफलतापूर्वक चलाए जाते हैं। इन्हीं संस्थानों में चार वर्षीय बी.ए. बी.एड. तथा बीएससी बीएड के चार वर्षीय समेकित कार्यक्रम भी
चलाए जाते हैं जिसमें कक्षा 12 उत्तीर्ण करने के बाद प्रवेश मिल सकता है। स्कूलों में मुख्य रूप से नियुक्तियां प्राइमरी टीचर, ट्रेंड ग्रेजुएट टीचर तथा पोस्ट-ग्रेजुएट टीचर के पदों पर तीन विभिन्न वेतनमानों में होती है। हेडमास्टर या प्राचार्य के पद पर सामान्यत: मास्टर ऑफ एजुकेशन-एम.एड. की उपाधि प्राप्त व्यक्तियों की नियुक्ति अध्यापन का समुचित अनुभव प्राप्त व्यक्तियों में से ही की जाती है। देश में इस समय लगभग 12000 अध्यापक प्रशिक्षण महाविद्यालयों में बी.एड. तथा एम.एड. की उपाधियों के लिए अध्यापन कार्य किया जाता है। देश के हर जिले में एक डायट-डिस्ट्रिक्ट इंस्टीट्यूट ऑफ एजूकेशन एण्ड ट्रेनिंग 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति आने के बाद स्थापित किए गए हैं। अध्यापक प्रशिक्षण के क्षेत्र में निजी संस्थानों की भरमार कुछ वर्षों में हो गई है। इससे इस क्षेत्र में शिक्षक प्रशिक्षण की गुणवत्ता का स्तर घटा है तथा अनेक अवसरों पर यह चिंताजनक स्थिति तक पहुंचा है। नए प्रशिक्षण महाविद्यालय खुलने से जॉब के नए अवसर खुलने चाहिए मगर व्यवहारिक रूप में ऐसा नहीं हो पा रहा है। निजी प्रबंधन ही नहीं अनेक बार सरकारी प्रशिक्षण संस्थानों तथा महाविद्यालयों में भी उचित संख्या से काफी कम अध्यापक रहते हैं। यह स्थिति स्कूलों से विश्वविद्यालयों तथा व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों तक में अनेक वर्षों से बनी हुई है। लाखों युवा शिक्षक बनकर कार्य करना चाहते हैं, आवश्यक योग्यता भी उनके पास है मगर चयन प्रक्रियाओं की रूढि़वादी जड़ता तथा शिथिलता के कारण अनेक वर्ष तक कई लाख पद विभिन्न स्तरों पर खाली बने रहते हैं।
मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि भारत के सर्वहारा की प्रगति एवं विकास का एकमात्र रास्ता देश की प्राथमिक शालाओं के दरवाजे से होकर जाता है। अभी लाखों-करोड़ों बच्चों को इस दरवाजे में प्रवेश नहीं मिल पाता है। कई करोड़ बच्चे पहले या दूसरे साल में स्कूल छोड़ देते हैं। एकमात्र इस प्रक्रिया को रोकने में योगदान करना राष्ट्रसेवा का बड़ा अवसर है। जो व्यक्ति अध्यापक के पद पर नियुक्त होकर उस पद की वैश्विक पारंपरिक गरिमा तथा उत्तरदायित्व बोध का सार तत्व ग्रहण कर लेता है उसे जीवन में अपार आत्मसुख, उपलब्धि तथा सम्मान प्राप्त होता है। भौतिक सुख सुविधाओं में जो कमी कही जा सकती है वह इस सब के समक्ष नगण्य हो जाती है। दूरदराज के क्षेत्रों में आज भी शिक्षा व्यवस्था को प्रारंभिक स्तर पर गतिमान बनाए रखने का कार्य वहां पदस्थ अध्यापक ही करते हैं। गांव-समाज का हर व्यक्ति आज भी अध्यापक से अपेक्षा करता है कि वह न केवल श्रेष्ठ अध्यापक के गुणों से भरपूर हो पर साथ में अच्छे व्यक्ति तथा मूल्य आधारित जीवन जीने वाले व्यक्तित्व के रूप में बच्चों और समाज के सामने आए। इस अपेक्षा का प्रभाव संवेदनशील अध्यापक के मन मस्तिष्क पर पड़ता है और अपना जीवन संवारने में उसे इससे सहायता मिलती है। जीवन में सफलतम स्तर तक पहुंचने वाले व्यक्ति सदा ही किसी न किसी अध्यापक के प्रति अनुग्रह की बात करते हैं जिसने प्रारंभिक वर्षों में उनको रास्ता दिखाया था। सरकारी नीतियां सदा ही अध्यापक के लिए श्रेष्ठतम विशेषणों का प्रयोग करती हैं जैसे ''किसी भी देश के लोगों का स्तर उनके अध्यापकों के स्तर से ऊंचा नहीं होता है।ÓÓ अध्यापकों को सदा ही श्रेष्ठता की ओर बढ़ते रहना होता है, नया ज्ञान प्राप्त करने की ललक उनके अंदर स्वत: ही उत्पन्न होती है। समय समय पर उनके पुनर्प्रशिक्षण तथा उन्मुखीकरण के अवसर मिलते रहते हैं। आज के समय में वही अध्यापक सफल हो सकते हैं जो 'यावद्जीवेत अधीयते विप्र:Ó का अनुसरण करते हैं, जो अपने विद्यार्थियों से घुलमिलकर उनके मन-मानस को जानने समझने तथा उनकी जिज्ञासाओं और अपेक्षाओं की उसी स्तर पर पूर्ति कर सकते हैं। अध्यापकों के पेशे में नई संचार तकनीकी भले ही हर स्कूल में उपलब्ध न हो पाई है, आज अध्यापक के पेशे में जाने वाले हर व्यक्ति को इससे परिचित ही नहीं एक सीमा तक 'पारंगतÓ होना पड़ेगा। ऐसा ही बहुत कुछ नया प्रति दो-तीन वर्षों में पाठ्यक्रम तथा पुस्तकों को लेकर भी होगा। अध्यापन विधियां तथा उपकरण भी बदलते रहेंगे। अध्यापक का पेशा अब केवल जाग्रत तथा गतिशील और स्वाध्यायी व्यक्तियों को ही पूर्ण संतोष प्रदान कर सकेगा।

अध्यापक बनने की इच्छा रखने वालों को कुछ अन्य तथ्य भी जानने चाहिए। पिछले 15-16 वर्षों से मानदेय पर अध्यापक नियुक्त करने की प्रथा को राज्य सरकारों ने प्रसन्नतापूर्वक अपनाया है। विभिन्न नामों से जाने वाले यह अध्यापक स्थानीय स्तरों पर नियुक्त किए जाते हैं। प्रारंभ में ऐसा करने के पक्ष में सरकारी तर्क यह था कि दूरदराज तथा ग्रामीण क्षेत्रों में अध्यापक जाते नहीं हैं। नौकरशाही ने इसको दूसरा रूप दे दिया है। कुछ राज्यों में सरकारी तथा सरकारी सहायता प्राप्त अध्यापकों की पहले पांच वर्ष की नियुक्ति केवल मानदेय पर हो सकती है। पांच वर्ष बाद नियमित ग्रेड मिलने का प्रावधान है यदि ''रिपोर्टÓÓ अच्छी हो। ऐसे उदाहरणों में काफी दम लगता है कि निजी प्रबंधन तो 4-5 साल बाद नियमित करने के बजाय मानदेय वाला अध्यापक ही रखेगा। ऐसी ही व्यवस्था वहां शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों तथा महाविद्यालयों में भी है। कई राज्यों में इससे मिलती जुलती व्यवस्थाएं संसाधन बचाने के नाम पर स्वीकृत हैं। नियुक्ति प्रक्रियाएं भ्रष्टाचार के चंगुल से कहीं भी निकल नहीं पा रही हैं। मानदेय पर काम करने वालों के ऊपर अनिश्चितता की तलवार सदा लटकी रहती है। वे नियमित अध्यापकों से अधिक कार्य करते हैं मगर उन्हें मिलने वाली पगार नियमित सहयोगी से 4 या 5 गुना कम होती है। निराशा तथा गिरता मनोबल अवश्यंभावी है इन परिस्थितियों में आशा करनी चाहिए कि इस प्रकार की व्यवस्था में भूल-चूक परिवर्तन शीघ्रता से किए जाएंगे।


अध्यापकों को प्रशिक्षण तथा पुनर्प्रशिक्षण के अवसर तो मिलने ही चाहिए, परंतु शोध को बढ़ावा देना भी आवश्यक है। अनेक विश्वविद्यालयों में शिक्षा विभाग इस कार्य को आगे बढ़ाते हैं। वैसे डायट-जिला शिक्षण एवं प्रशिक्षण संस्थान तथा 'इंस्टीट्यूट ऑफ एडवान्स्ड स्टडीज इन एजुकेशनÓ भी शोध तथा नवाचार बढ़ाने के लिए ही स्थापित किए गए हैं। इनमें शोध करने तथा नए प्रयोगों में रुचि लेने वालों के लिए कार्य करने के अवसर मिल सकते हैं। पहले एम.एड. कर शोध छात्र बनकर पी.एच.डी. करने के बाद महाविद्यालय या विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग में नियुक्ति हो सकती है यदि प्रार्थी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा निर्धारित अर्हताएं पूर्ण करता हो। नवीनतम विधाओं से लेकर ग्रामीण विकास में शिक्षा के योगदान तक एक अत्यंत विस्तृत चित्रापट अध्यापक को नवाचार, शोध एवं संशोधन के लिए उपलब्ध होता है। इस सब को आगे बढ़ाना आवश्यक है ताकि शिक्षा भारतीयता से ओत प्रोत तथा अध्यापन के पेशे की साख बढ़े। समाज और स्कूल की परस्परता बढ़ाने का काम अध्यापक के पेशे को बहुआयामी बनाता है।

शिक्षा की संपूर्णता तथा गुणवत्ता कक्षा-अध्यापक पर सबसे अधिक निर्भर करती है। अच्छे अध्यापक अच्छे विद्यार्थी तैयार करते हैं तथा वह समाज की संरचना को गतिशीलता तथा जीवन लक्ष्यों को प्राप्त करने की क्षमता प्रदान करते हैं। अध्यापन के पेशे की सर्वश्रेष्ठता किसी भी संदेह से परे है।

Jagran Josh
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Education Desk

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