गांधीवादी अर्थशास्त्र की क्या विशेषताएं हैं?

Feb 6, 2018, 23:02 IST

गांधीवादी अर्थशास्त्र एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था की संकल्पना पर आधारित है जिसमें “वर्ग” का कोई स्थान नही है. गाँधी का अर्थशास्त्र एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने की बात करता है जिसमें एक व्यक्ति किसी दूसरे का शोषण नही करता है. अर्थात गांधीवादी अर्थशास्त्र सामाजिक न्याय और समता के सिद्धांत पर आधारित है.

Gandhism Properties
Gandhism Properties

गांधीवादी अर्थशास्त्र एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था की संकल्पना पर आधारित है जिसमे “वर्ग” का कोई स्थान नही है; लेकिन इस तरह का गांधीवाद, मार्क्सवाद से भिन्न है. गाँधी का अर्थशास्त्र एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने की बात करता है जिसमें एक व्यक्ति किसी दूसरे का शोषण नही करता है. अर्थात गांधीवादी अर्थशास्त्र; सामाजिक न्याय और समता के सिद्धांत पर आधारित है.
गाँधी जी मानते थे कि “प्रकृति हर व्यक्ति की जरूरत को पूरा कर सकती है लेकिन वह किसी के लालच को कभी भी पूरा नही कर सकती है.”
गाँधी जी के आर्थिक विचार काफी हद तक जॉन रस्किन की किताब "Unto This Last" से प्रभावित थे. यह किताब 1860 में प्रकशित हुई थी. उन्होंने इस किताब से सीखा कि;
1. एक व्यक्ति का भला “सबके भले” में निहित है.
2. एक वकील के काम की अहमियत एक नाई के काम की कीमत से कम नही है क्योंकि दोनों ही अपनी आजीविका को चलाने के लिए परिश्रम करते हैं.
आइये अब जानते हैं कि गाँधी के आर्थिक विचार क्या कहते हैं;
1. समाज में सभी के श्रम का मूल्य बराबर है.
2. श्रम और पूँजी के बीच किसी प्रकार का विरोध नही है.
3. गांधी जी मानते थे कि कोई व्यक्ति चाहे कितना भी अमीर क्यों न हो उसे इतना शारीरिक परिश्रम अवश्य करना कि वह अपना पेट भर सके. अर्थात मानसिक श्रम करने वाले को भी शारीरिक श्रम करना चाहिए.
4. उनका न्यासवाद का सिद्धांत (Principle of Trusteeship) यह कहता है कि पूँजी का असली मालिक एक पूंजीपति नही है बल्कि पूरा समाज है. पूंजीपति केवल संपत्ति का रखवाला है. उनका मनना था कि जो संपत्ति पूँजीपतियों के पास है वह पूरे समाज की धरोहर है.
5. गाँधी जी का अर्थशास्त्र छोटे और श्रम प्रधान उद्योगों के पक्ष में है. गाँधी जी बड़ी-बड़ी मशीनों के विरोधी थे; हालाँकि यह बात वर्तमान समय में थोड़ी कम सार्थक है. उनका मानना था कि एक निर्जीव मशीन कई मनुष्यों का काम करती है जिसके कारण समाज में बेरोजगारी बढती है.
6. गाँधी जी मानते थे कि यदि व्यक्ति को कम संसाधनों के साथ रहने की आदत पड़ जाये तो व्यक्ति की जिंदगी में कभी भी ‘कुछ कम नही पड़ता है’. वे मानते थे कि आवश्यकताएं मृग तृष्णा जैसी होतीं हैं और आवश्यकताओं को जितना बढाया जाए उतनी ही बढती जातीं हैं.
7. उत्पादन का लक्ष्य समाज की आवश्यकता की पूर्ती होना चाहिए ना कि लाभ कमाना.
8. गाँधी जी पूँजीपति को पूर्णतया नष्ट नही करना चाहते थे बल्कि वे उसे समाज के लिए उपयोगी बनाना चाहते थे.
9.  गाँधी जी कहते थे कि प्रत्येक पूँजी दोषी नही है, पूँजी का गलत उपयोग पूँजी को गलत बनाता है. आवश्यकता से अधिक पूँजी रखने वाला समाज का दुश्मन है.
10. गाँधी की आर्थिक व्यवस्था में उत्पादन की मात्रा समाज की जरुरत के हिसाब से तय होती है. इसमें व्यक्तिगत इच्छाओं और लालच का कोई स्थान नही होता है.
11. प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए ही उत्पादन करना चाहिए. आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का उत्पादन प्रकृति पर अतिरिक्त दबाव डालता है.
12. गाँधी जी राष्ट्रीयकरण के विरोधी थे. उनका मानना था कि राष्ट्रीयकरण से राज्य की निरंकुशता बढती है.
13. गाँधी जी उचित उद्येश्यों के लिए की गयी हड़ताल को सही मानते थे. वे स्वार्थपूर्ण और हिंसात्मक हड़ताल के विरोधी थे.
उपर लिखे गए बिन्दुओं से यह बात साफ हो जाती है कि गाँधी जी के अर्थशास्त्र में “व्यक्ति” केन्द्रीय स्थान रखता है. वे मानते थे कि समाज के हर अंग को लोगों के कल्याण में वृद्धि के लिए ही कार्य करना चाहिए.

Hemant Singh is an academic writer with 7+ years of experience in research, teaching and content creation for competitive exams. He is a postgraduate in International
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