मथुरा में खुदाई की गयी संगमरमर से बनी बुद्ध मूर्तियां प्राचीन काल से लेकर मध्ययुगीन काल तक भारतीय कला में एक अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं। यह कला पहली शताब्दी से पांचवीं शताब्दी ई. के बीच अपने चरम पर पहुंच गयी जबकि इस काल में गुप्त और कुषाण शासक अपनी सत्ता में थे।मथुरा कला शैली में लाल रंग के पत्थरों से बुद्ध और बोद्धिसत्व की सुन्दर मूर्तियाँ बनायी गयीं।
कुषाण शासकों ने पहली शताब्दी से लेकर 175 ई. के बीच उत्तरी भारत के एक विशाल क्षेत्र पर शासन किया। मथुरा कला परंपरा इस अवधि के दौरान विकसित कला परंपराओं में से एक थी जबकि गांधार कला परंपरा दूसरी कला परंपरा थी।गांधार कला परंपरा ग्रीको रोमन परम्परा पर आधारित थी जोकि एक विदेशी तकनीकि से ग्रहण की गयी थी जबकि मथुरा कला परंपरा पूरी तरह से भारतीय तकनीकि पर आधारित थी।
यह कला गंधार परम्परा के द्वारा भी प्रभावित था जोकि इसकी मूर्तियों में दृष्टिगोचित होता है। इस कला परंपरा के अंतर्गत बुद्ध मूर्तियों के साथ-साथ सुन्दर महिलाओं की मूर्तियाँ भी बनायीं गईं। उल्लेखनीय है की कुषाण काल में इस परम्परा के अंतर्गत बुद्ध को न केवल मानव रूप में प्रदर्शित किया गया बल्कि पत्थरों के रूप में मूर्तियाँ भी बनायीं गयी। इस कला पद्धति ने बुद्ध को एक तीन आयामी प्रभाव दिया और उत्साही स्वरुप प्रदान किया।
चौड़े कंधे, मर्दाना धड़ और दाहिने हाथ की ऊपर उठी अभयमुद्रा मुद्रा बौद्ध मूर्ति की अनेक विशेषताओं में से एक हैं। मथुरा कला विद्यालय का गुप्तकाल में आगे काफी विकास हुआ जब बौद्ध मूर्तियां पारदर्शी पर्दे की कई परतों के साथ, तेज और सुंदर एवं गठीले शरीर के साथ विकसित हुई।
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