सार्वजनिक ऋण और घाटे की वित्त व्यवस्था

May 9, 2016, 17:50 IST

देश की सरकार द्वारा आम जनता और वित्तीय संस्थाओं से लिया गया कर्ज सार्वजनिक ऋण या पब्लिक डेट कहलाता है। इसे सरकारी ऋण अथवा राष्ट्रीय कर्ज भी कहा जाता है। यह कर्ज देश की वित्तीय स्थिति का सटीक पैमाना है। भारत का विदेशी ऋण मार्च 2014 के अंत तक 446.3 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर मार्च 2015 के अंत तक 475.8 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया था। देश के विदेशी ऋण में दीर्घकालिक उधारी का बोलबाला हो रहा है।

देश की सरकार द्वारा आम जनता और वित्तीय संस्थाओं से लिया गया कर्ज सार्वजनिक ऋण या पब्लिक डेट कहलाता है। इसे सरकारी ऋण अथवा राष्ट्रीय कर्ज भी कहा जाता है। सार्वजनिक ऋण वह विदेशी कर्ज है, जो निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों की विदेशी मुद्रा देनदारियों को दर्शाता है और इसे विदेशी मुद्रा आय से वित्तपोषित किया जाता है। भारतीय संदर्भ में सार्वजनिक ऋण, केंद्र और राज्य सरकारों की कुल उधारी के रूप में माना जाता है। जब सरकार का खर्च, आय से अधिक हो जाएँ तब घाटे की वित्त व्यवस्था (आम जनता से उधार, बाहरी स्रोतों से उधार और मुद्रा की छपाई ) का सहारा लिया जाता है।

किसी भी वक्त सरकार पर कुल कर्ज का ये आंकड़ा देश की वित्तीय स्थिति का सटीक पैमाना है। भारत का विदेशी ऋण मार्च 2014 के अंत तक 446.3 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर मार्च 2015 के अंत तक 475.8 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया था। भारत के विदेशी ऋण में दीर्घकालिक उधारी का भाग सबसे ज्यादा रहा है।

A.आंतरिक देनदारियां

आंतरिक देनदारियों को चार भागों में बांटा गया है: (1) आंतरिक ऋण (2) छोटे बचत, जमा और भविष्य निधि, (3) अन्य खातों (4) रिजर्व फंड और जमा।

1. आंतरिक ऋण- बाजार ऋण, ट्रेजरी बिल, और प्रतिभूतियां अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के लिए जारी किए जाते हैं?

बाजार ऋण- ये ऋण 12 महीने या उससे अधिक की परिपक्वता पर जारी किए जाते हैं।  यह ऋण ब्याज पर जारी होता है। सरकार ऐसे ऋण लगभग हर साल जारी करती है। इन ऋणों को खुले बाजार में प्रतिभूतियों या अन्य माध्यमों से बिक्री के द्वारा उठाया जाता है। बाजार ऋण के अलावा, सरकार समय समय पर गोल्ड बांड की तरह बांड जारी करती है।

ट्रेजरी बिल- ट्रेजरी बिल सरकार के राजस्व और व्यय के बीच की खाई को पाटने के लिए लघु अवधि के फंड का एक प्रमुख स्रोत रहा है। इनकी परिपक्वता 91, 182 या 364 दिनों में होती है और हर शुक्रवार को यह जारी किए जाते हैं। ट्रेजरी बिल भारतीय रिजर्व बैंक, राज्य सरकारों, वाणिज्यिक बैंकों और अन्य दलों के लिए जारी किए जाते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के लिए जारी की गई प्रतिभूतियां- भारत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान जैसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, पुनर्निर्माण और विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय बैंक (IBRD)के विकास के लिए योगदान देता है। ये योगदान अनिवार्य व व्याज रहित प्रतिभूतियों के माध्यम से दिया जाता है। भारत सरकार इन संस्थानों को आवश्यकतानुसार भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होती हैं।

2- लघु बचत, जमा और भविष्य निधि: लघु बचत योजनाओं से अर्थव्यवस्था में लगातार धन की आवाजाही हर वर्ष बढ़ती जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण सरकार की विभिन्न लघु बचत योजनाएं हैं। इन बचत योजनाओं का मुख्य आकर्षण कर रियायतों का होना है। (जैसे राष्ट्रीय बचत प्रमाण पत्र) और ऐसी बचत योजनाओं के लालच में लोग पैसा लगाते हैं। जहां तक भविष्य निधि का सवाल है, वे दो श्रेणियों में विभाजित हैं। राज्य भविष्य निधि और पब्लिक प्रोविडेंट फंड

3. अन्य खाते- ये मुख्य रूप से डाक बीमा और जीवन वार्षिकी निधि, हिंदू परिवार वार्षिकी निधि, अनिवार्य जमा पर उधार और आयकर वार्षिकी जमा, गैर सरकारी भविष्य निधि पर विशेष जमा शामिल हैं।

4. रिजर्व फंड और जमा: रिजर्व फंड और जमा को दो श्रेणियों में विभाजित किया जाता है। ब्याज और गैर ब्याज श्रेणी। वे मूल्यह्रास और रेलवे रिजर्व फंड और डाक विभाग और दूरसंचार विभाग, स्थानीय निधि की जमा, विभागीय और न्यायिक जमा, सिविल डिपॉजिट शामिल हैं।

B.बाह्य देनदारियां

विकासशील देशों को आर्थिक विकास के शुरूआती चरण में उच्च निवेश स्तर, सकारात्मक भुगतान संतुलन और उच्च तकनीकी विकास को बनाये रखने के लिए अधिक मात्र में विदेशी मुद्रा की आवश्यकता होती है। भारत सरकार ने अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, पूर्व सोवियत संघ, जर्मनी आदि जैसे देशों और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, आईबीआरडी, आईडीए आदि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से ऋण लिया है। इस प्रकार केन्द्रीय सरकार के पास विदेशी देनदारियों में वृद्धि हुई है। सन् 1981 मार्च अंत तक भारत पर 11,298 करोड़ रुपये कर्ज था। जो सन् 1991 मार्च अंत तक बढ़कर 31,525 करोड़ रुपये हो गया। यह ऋण लगातार बढ़ रहा है सन् 2011मार्च अंत तक 1,56,347 करोड़ रुपए हो गया। दिसंबर 2014 तक भारत सरकार के ऊपर सकल घरेलू उत्पाद के 66% के बराबर कर्ज था।

घाटे की वित्त व्यवस्था का अर्थ

डॉ वी के आर वी राव घाटे की वित्त व्यवस्था को परिभाषित करते हुए कहा है कि "परिस्थितियां ऐसी बना दी जाती हैं जब सार्वजनिक राजस्व और सार्वजनिक व्यय के बीच के अंतर आ जाता है और इसे घाटे की वित्त व्यवस्था या बजटीय घाटा कहते हैं। घाटे की वित्त व्यवस्था को संभालने के लिए अतिरिक्त पैसे की आपूर्ति की जरूरत होती है। घाटे की वित्त व्यवस्था को दूर करने के लिए निम्न उपाय हैं।

• भारतीय रिजर्व बैंक से संचित नगद का उपयोग करना

• संस्थाओं, आम जनता व कॉरपोरेट घरानों को सरकारी प्रतिभूतियों की बिक्री

घाटे की वित्त व्यवस्था का उद्देश्य:

बढ़े खर्च को पूरा करने के लिए - जब सरकार की आय उसके व्यय की तुलना में कम हो जाती है तो ऐसी दशा में सरकार के पास अतिरिक्त धन नहीं होता है जिसकी पूर्ति सरकार घटे की वित्त व्यवस्था करके करती है।

मंदी का निदान: - विकसित देशों या विकासशील देशों में घाटे की वित्त व्यवस्था मंदी को हटाने के लिए आर्थिक नीति के साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है।  क्योंकि इन देशों के बाजार, मांग की कमी से ग्रसितरहते हैं। प्रो कीन्स ने भी अवसाद और बेरोजगारी के लिए एक उपाय के रूप में घाटे की वित्त व्यवस्था का सुझाव दिया है।

आर्थिक विकास को बढ़ावा देना: - इस वित्त व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य भारत जैसे विकासशील देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देना है। सरकार के हाथ में घाटे की वित्त व्यवस्था एक ऐसा उपाय है जिससे विकास कार्यों के लिए पैसा जुटाया जाता है ।

संसाधन जुटाना: - घाटे की वित्त व्यवस्था में संसाधनों को आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है। साथ ही यह अर्थव्यवस्था में मांग पैदा करती है।

सब्सिडी अनुदान के लिए: - भारत जैसे देश में सरकार उत्पादकों (किसानों, उद्यमियों आदि) को  विशेष प्रकार की वस्तु  का निर्माण करने के लिए व प्रोत्साहित करने के लिए सब्सिडी देती है।

सकल मांग में वृद्धि: घाटे की वित्त व्यवस्था में सकल मांग बढ़ जाती है, जिसके चलते सार्वजनिक व्यय बढ़ जाता है। यह लोगों की आय और क्रय शक्ति बढ़ाती है। वस्तुओं की उपलब्धता और सेवा में वृद्धि होती है जो उत्पादन और रोजगार के स्तर बढ़ा देती है।

घाटे की वित्त व्यवस्था के नकारात्मक प्रभाव

घाटे की वित्त व्यवस्था अपने दोषों से मुक्त नहीं है। यह भी अर्थव्यवस्था पर कुछ नकारात्मक प्रभाव डालती है। घाटे की वित्त व्यवस्था के बुरे प्रभाव नीचे दिए गए हैं।

मुद्रास्फीति की दर में बृद्धि: - घाटे की वित्त व्यवस्था मुद्रास्फीति को जन्म देती है। क्योंकि घाटे की वित्त व्यवस्था से अर्थव्यस्था में मुद्रा की आपूर्ति और लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाती है जो वस्तुओं की कीमत को बढ़ा देती है।

बचत पर प्रतिकूल प्रभाव: - घाटे की वित्त व्यवस्था मुद्रास्फीति की ओर जाती है और मुद्रास्फीति स्वैच्छिक बचत की आदत पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। हालांकि यह लोगों के लिए संभव नहीं है कि लोग बढ़ती कीमतों के बीच बचत की पिछली दर को बनाए रखे।

निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव: - घाटे की वित्त व्यवस्था निवेश पर प्रतिकूल असर डालती है जब अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति बढ़ती है, उस वक्त ट्रेड यूनियन, कर्मचारी अधिक वेतन की मांग करते हैं। यदि उनकी मांगों को स्वीकार किया जाता है तो उत्पादन की लागत बढ़ जाती है जिससे निवेशक हतोत्साहित होते हैं।

Hemant Singh is an academic writer with 7+ years of experience in research, teaching and content creation for competitive exams. He is a postgraduate in International
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