सिविल सेवा परीक्षा की गुत्थी

Jul 31, 2014, 12:38 IST

सिविल सेवा परीक्षा में हिंदीभाषी छात्रों के पिछड़ने का कारण अंग्रेजी के वर्चस्व के साथ ही शिक्षा के निजीकरण को भी बता रहे हैं डॉ. उदित राज

सिविल सेवा परीक्षा में हिंदीभाषी छात्रों के पिछड़ने का कारण अंग्रेजी के वर्चस्व के साथ ही शिक्षा के निजीकरण को भी बता रहे हैं डॉ. उदित राज

इस वर्ष सिविल सर्विस में सफल होने वाले अंग्रेजी माध्यम वाले परीक्षार्थी बहुतायत में थे। 2009 में जहां हिंदी भाषी सफल उम्मीदवार 25.4 प्रतिशत थे, वहीं 2010 में 13.9, 2011 में 9.8 और 2013 में 2.3 प्रतिशत ही रह गए। 2013 में कुल सफल उम्मीदवार 1122 थे, जिसमें हिंदीभाषी 26 ही थे। यह आक्रोश का सबसे बड़ा कारण है। इसी कारण सिविल सर्विस परीक्षा के वर्तमान प्रारूप के विरोध में पिछले दिनों दिल्ली में छात्र आंदोलन पर उतर आए। कुछ अपवादों को छोड़कर इस सेवा में प्रवेश करने के लिए परीक्षार्थियों के पास भारत में इससे बड़ा कोई अवसर नहीं दिखता। 1980 से पहले विज्ञान एवं इंजीनियरिंग के परीक्षार्थी बहुत कम सिविल सर्विसेज के लिए प्रयास करते थे, लेकिन धीरे-धीरे नौकरशाही के प्रति आकर्षण बढ़ने लगा। आइआइटी के कैंपस पर अस्सी के दशक के बाद इसका प्रभाव साफ दिखने लगा था। पहले दो वैकल्पिक विषय और सामान्य ज्ञान का प्रश्नपत्र होता था। जिसके प्राप्तांक 1800 हुआ करते थे और साक्षात्कार के 250 अंक का था। वर्तमान में सामान्य ज्ञान के दो पेपर 500-500 अंक के होते हैं। एक वैकल्पिक विषय 500 अंक का है, निबंध 250 और साक्षात्कार 275 का है। इन दोनों व्यवस्थाओं से इंजीनियर और डॉक्टर फायदे में रहे और वर्तमान में तो इनका आधिपत्य ही हो गया है। 1980 से पहले की व्यवस्था विज्ञान के परीक्षार्थियों के पक्ष में इतनी नहीं थी।

आजादी के बाद सिविल सर्विस में केरल के लोग ज्यादा सफल हुआ करते थे। धीरे-धीरे इलाहाबाद सिविल सेवा का केंद्र बना। इसके बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय। 1980 के बाद इंजीनियरों और डॉक्टरों में इसका आकर्षण पैदा हुआ। भूमंडलीकरण के कारण बीच में लगा कि निजी क्षेत्र में देश-विदेश में सिविल सर्विसेज से ज्यादा पैसा और सुविधाएं पैदा हो रही हैं और इसलिए प्रतिभाएं वहां जाने लगेंगी। एक हद तक ऐसा हुआ भी, लेकिन सिविल सर्विस के प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ। 1980 के दशक से सिविल सर्विसेज के प्रति बिहार के लोगांे में ज्यादा आकर्षण पैदा हुआ। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक आदि प्रदेशों में कॉरपोरेट संस्कृति, आइटी और अन्य अवसर उत्पन्न हुए इसलिए वहां सिविल सर्विस ही एकमात्र विकल्प नहीं है। यह भी जांचना आवश्यक है कि सिविल सर्विसेज में जाने की इतनी होड़ क्यों है? यह देखा गया है कि सामंती और पारंपरिक सोच के लोगों की इन सेवाओं के प्रति ललक अधिक होती है। इसका कारण यह है कि सिविल सर्विसेज में न केवल अच्छा वेतन है, बल्कि रुतबा भी है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रदेशों के गांवों में पुलिस के थानेदार की इज्जत एक प्रोफेसर से ज्यादा होती है। इन परीक्षार्थियों को यह विकल्प दिया जाए कि सिविल सेवा के मुकाबले निजी क्षेत्र में दो या तीन गुना ज्यादा वेतन और सुविधाएं मिलेंगी तो भी वे वहां नहीं जाना चाहेंगे। साक्षात्कार के समय जब बोर्ड में पूछा जाता है कि इसी सेवा में क्यों जाना चाहते हो तो एक रटा-रटाया उत्तर होता है कि प्रशासन में जाकर समाज और देश की सेवा करने का इच्छा है। यह अधूरा सच है। पूरा सच उजागर करना एक नैतिक और विवादित प्रश्न खड़ा कर देगा।

भारतीय भाषाओं के जो छात्र आंदोलन कर रहे हैं उनकी मांग जायज है, लेकिन समग्र परिस्थिति के विश्लेषण का अभाव है। इनका कहना है कि हिंदी में किया हुआ अनुवाद असफलता का एक कारण है। इसके अलावा सी-सैट भारतीय भाषाओं के परीक्षार्थियों को रोकने का कार्य कर रहा है। यह परीक्षा प्रणाली अंग्रेजीभाषी परीक्षार्थियों के पक्ष में ज्यादा है। इनके असंतोष में वह बात देखने को नहीं मिली जो मूल कारण हैं। 1990 के बाद निजीकरण का दौर बढ़ा और शिक्षा जगत इससे न बच सका। आज लगभग 60 फीसद उच्च शिक्षा निजी क्षेत्र के दायरे में पहुंच गई है और प्राथमिक शिक्षा की बात ही क्या कहना। व्यावसायिक और लाभकारी शिक्षा का एक बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र में जा चुका है। निजी क्षेत्र के शिक्षा संस्थानों में न केवल अच्छे शिक्षक होते हैं, बल्कि सुख-सुविधाएं सरकारी स्कूलों से कई गुना ज्यादा होती है। ज्यादातर सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नाममात्र की होती है और ये जो तीनों सुविधाएं हैं वे नहीं होती हैं। यह भी एक यथार्थ है कि ज्यादातर पढ़ाकू छात्र शुरू से गणित और विज्ञान की ओर मुखातिब होते हैं और इनकी पढ़ाई का माध्यम शुरुआत में अंग्रेजी न भी हो, लेकिन बाद में हो जाता है। यह भी एक कारण है कि भारतीय भाषाओं के छात्र असफल हो रहे हैं। जो नई शिक्षा प्रणाली आई है उसके तहत बच्चे को दसवीं तक परीक्षा देने की जरूरत नहीं होती, इससे भारतीय भाषाओं के परीक्षार्थियों को सर्वाधिक हानि हो रही है। इस व्यवस्था को फौरन समाप्त करना चाहिए। शिक्षा का निजीकरण और परीक्षा से मुक्ति के कारण भारतीय भाषाओं के उम्मीदवारों को ज्यादा हानि हो रही है। सी-सैट, अनुचित अनुवाद और अंग्रेजी भाषा तो कारण हैं ही।

इस समय देश के समक्ष यह चुनौती है कि इस संकट से कैसे निपटा जाए? अगर अंग्रेजी हटाते हैं तो भी मुश्किल है। भारत सरकार का ज्यादातर काम अंग्रेजी में ही होता है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में तो अंग्रेजी के बगैर गुजारा नहीं है। दक्षिण भारतीय सिविल सर्वेट अगर उत्तर भारत में आते हैं और उत्तर भारत वाले दक्षिण भारत में जाते हैं तो बिना अंग्रेजी के कैसे संवाद स्थापित कर सकेंगे? सी-सैट में डिसीजन मेकिंग, न्यूमेरिकल स्किल, रीडिंग कॉम्प्रिहेंशन आदि वजहों से भारतीय भाषा के छात्र अच्छा नहीं कर पा रहे हैं। यदि इन्हें हटा दिया जाता है तो जिस टैलेंट की सिविल सर्विसेज में चाहत है, उससे हम वंचित रह जाते हैं। एक नौकरशाह में औसत सामान्य ज्ञान के साथ-साथ गणित, निर्णय लेने और विश्लेषण करने की क्षमता होना चाहिए। वर्तमान में यही असली चुनौती है कि कैसे संतुलन बनाया जाए ताकि जिस प्रतिभाएं बनी रहें और हिंदीभाषी परीक्षार्थी भी नुकसान में न रहें.

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Education Desk

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