भारत में जब भी महान कवियों की बात होती है, तो इस सूची में शीर्ष स्थान पर संत कबीर का नाम आता है। कबीर अपनी कई प्रमुख रचनाओं के लिए जाने जाते हैं, जो कि वर्तमान में भी हमारे बीच प्रचलित हैं। कबीर को हम मस्तमौला के नाम से भी जानते हैं। आपने भी कभी-न-कभी कबीर के दोहों को जरूर सुना होगा, जो कि सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वास और कर्मकांड को लेकर लिखे गए हैं।
उनकी कई रचनाएं इन्हीं विषयों पर आधारित हैं। यही वजह है कि उनकी रचनाओं को बहुत लोगों ने पढ़ा और सुना है, लेकिन उनके बारे में कम ही लोग अधिक जानते हैं। इस लेख के माध्यम से महान कवि संत कबीर के जीवन के बारे में में बताया गया है।
कबीर का जन्म
संत कबीर के जन्म की बात करें, तो इस संबंध में पुख्ता जानकारी नहीं है कि कबीर का जन्म कब हुआ था। हालांकि, एक मान्यता के मुताबिक, उनका जन्म 1368 में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को लहरतारा तालाब, वाराणसी में हुआ था, जहां से नीरू नीमा नाम के दंपत्ति उन्हें उठाककर अपने साथ ले गए थे।
क्या काम करते थे कबीर
यह बात हम सभी जानते हैं कि कबीर लेखन में निपुण थे, जिनकी रचनाएं आज देश-विदेश तक फैली हुई हैं। हालांकि, वह अपना जीवन निर्वाह करने के लिए जुलाहे का काम करते थे और इससे अपना जीवन बसर करते थे। कबीर को अपने जीवन में 52 कसौटियों से गुजरना पड़ा था।
परमेश्वर में रखते थे विश्वास
कबीर दास परमेश्वर यानि कि सबका एक ही ईश्वर में विश्वास रखते थे। उनके यहां अक्सर साधु-संतों का जमावड़ा रहता था। साथ ही वह उनकी आवाभगत के लिए भी जाने जाते हैं। हालांकि, कबीरदास कर्मकांड के खिलाफ थे, उनका मानना था कि मूर्ति पूजा, रोजा, ईद व मंदिर से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
जब दिल्ली का बादशाह कबीर के भंडारे में पहुंचा
कबीर दास के शिष्य धर्मदास द्वारा लिखित कबीर सागर के मुताबिक, कबीरदास के विचारों से उस समय कई विद्वान ईर्ष्या करने लगे थे। ऐसे में कुछ लोगों द्वारा एक चिट्ठी लिखवाकर देश-विदेश में पहुंचा दी गई कि एक निश्चित दिन पर कबीर दास की ओर से भंडारे का आयोजन किया जाएगा और आने वाले लोगों को आभूषण भी मिलेंगे। ऐसे में एक निश्चित दिन पर कई लाखों लोग पहुंच गए।
ऐसा कहा जाता है कि उसी दिन केशव बंजारा नाम का व्यक्ति अपनी बैलों पर भंडारे का सामान लादकर पहुंच गया और तीन दिनों तक सभी लोगों को खाना व आभूषण दिए। इस भंडारे में उस समय दिल्ली का सुल्तान सिकंदर लोधी भी पहुंचा था। साथ ही उसका मंत्री शेखतकी भी पहुंचा, जो कबीर से ईर्ष्या करता था।
ऐसा कहा जाता है कि उसने भंडारे की निंदा की और उसके बाद से उसकी आवाज चली गई। हालांकि, इस घटना के बाद से लोगों ने कबीर दास से उपदेश लेना शुरू किया और उनके अनुयायी बने। संत कबीर ने अपना पूरा जीवन वाराणसी में बिताया, लेकिन अंत में वह मगहर चले गए और यहां 1518 में उनकी मृत्यु हो गई। ऐसा कहा जाता है कि इसके पीछे उनका तर्क था कि मोक्ष काशी के बाहर भी मिलता है।
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