क्यों समान नागरिक संहिता भारत के लिए जरुरी है?

Uniform Civil Code: भारत के संविधान के आर्टिकल 44 में “समान नागरिक संहिता”का प्रावधान किया गया है. यदि आसान शब्दों में कहा जाये तो 'समान नागरिक संहिता' का मतलब है, "एक देश एक कानून".अर्थात पूरे देश के लिए एक समान कानून का प्रावधान. वर्तमान केंद्र सरकार, देश में “समान नागरिक संहिता” के प्रावधानों को लागू करने जा रही है. इसके लागू होते ही देश में धर्म के आधार पर लागू कानून हट जायेंगे.

Dec 26, 2019, 11:23 IST
Uniform Civil Code
Uniform Civil Code

“समान नागरिक संहिता”का लक्ष्य व्यक्तिगत कानूनों (धार्मिक ग्रंथों और रीति-रिवाजों पर आधारित कानून) को प्रतिस्थापित करना है| इन कानूनों को सार्वजनिक कानून के नाम से जाना जाता है और इसके अंतर्गत विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने और संरक्षण जैसे विषयों से संबंधित कानूनों को शामिल किया गया है|

भारत में गोवा एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ समान नागरिक संहिता और विशेष विवाह अधिनियम 1954 लागू है जो किसी भी नागरिक को किसी विशेष धार्मिक कानून के दायरे के बाहर शादी करने की अनुमति देता है.

आइये जानते है कि अतीत में समान नागरिक संहिता की शुरूआत कहाँ से हुई थी?

1840 में ब्रिटिश सरकार द्वारा “लेक्स लूसी रिपोर्ट के आधार पर अपराधों, सबूतों और अनुबंधों के लिए एकसमान कानून का निर्माण किया गया था लेकिन उन्होंने जानबूझकर हिंदुओं और मुसलमानों के कुछ निजी कानूनों को छोड़ दिया था। दूसरी ओर ब्रिटिश भारतीय न्यायपालिका ने हिन्दू और मुस्लिमों को अंग्रेजी कानून के तहत ब्रिटिश न्यायाधीशों द्वारा आवेदन करने की सुविधा प्रदान की थी| इसके अलावा उन दिनों में विभिन्न समाज सुधारक सती-प्रथा एवं अन्य धार्मिक रीति-रिवाजों के तहत महिलाओं के खिलाफ हो रहे भेदभाव को समाप्त करने के लिए कानून बनाने हेतु आवाज उठा रहे थे|

1940 के दशक में गठित संविधान सभा में जहाँ एक ओर समान नागरिक संहिता को अपनाकर समाज में सुधार चाहने वाले डॉ. बी. आर. अम्बेडकर जैसे लोग थे वहीं धार्मिक रीति-रिवाजों पर आधारित निजी कानूनों को बनाए रखने के पक्षधर मुस्लिम प्रतिनिधि भी थे| जिसके कारण संविधान सभा में समान नागरिक संहिता का अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा विरोध किया गया था| परिणामस्वरूप समान नागरिक संहिता के बारे में संविधान के भाग IV में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के रूप में अनुच्छेद 44 के तहत सिर्फ एक ही लाइन जोड़ा गया था| जिसमें कहा गया है कि “राज्य भारत के राज्यक्षेत्र के अंतर्गत निवास करने वाले सभी नागरिकों को सुरक्षित करने के लिए एकसमान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करेगा|” चूंकि एकसमान नागरिक संहिता को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के रूप में शामिल किया गया था अतः इन कानूनों को अदालत के द्वारा लागू नहीं किया जा सकता था|

इसके अलावा देश की राजनीतिक विसंगति के कारण किसी सरकार ने इसे लागू करने के लिए उचित इच्छाशक्ति नहीं दिखाई, क्योंकि अल्पसंख्यकों मुख्य रूप से मुसलमानों का मानना ​​था कि एकसमान नागरिक संहिता द्वारा उनके व्यक्तिगत कानूनों का उल्लंघन होगा| अतः केवल हिन्दुओं के कानूनों को संकलित करने के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिन्दू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम 1956, और हिन्दू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम 1956 जैसे विधेयकों को पारित किया गया था जिसे सामूहिक रूप से हिन्दू कोड बिल के नाम से जाना जाता है|

इस बिल में बौद्ध, सिख, जैन के साथ ही हिंदुओं के विभिन्न धार्मिक संप्रदायों से संबंधित कानूनों को शामिल किया गया है, जिसके तहत महिलाओं को तलाक और उत्तराधिकार के अधिकार दिए गए हैं और शादी के लिए जाति को अप्रासंगिक बताया गया है| इसके साथ ही द्विविवाह और बहुविवाह को समाप्त कर दिया गया है|

वर्तमान परिपेक्ष्य की बात करें तो हमारा देश समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर तीन शब्दों अर्थात राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक आधार पर दो श्रेणियों में बँटा हुआ दिखाई देता है| राजनीतिक रूप से, जहाँ भाजपा समान नागरिक संहिता के पक्ष में है वहीं कांग्रेस एवं गैर भाजपा दल जैसे समाजवादी पार्टी समान नागरिक संहिता का विरोध कर रही है| सामाजिक रूप से, जहाँ देश के पेशेवर एवं साक्षर व्यक्ति समान नागरिक संहिता के लाभ-हानि का विश्लेषण कर सकते हैं वहीं दूसरी ओर अनपढ़ लोग राजनीतिक दलों द्वारा लिए गए फैसले के आधीन है क्योंकि समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर इनका कोई अपना विचार नहीं है| धार्मिक रूप से,  बहुसंख्यक हिंदुओं और अल्पसंख्यक मुसलमानों के बीच समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर मतभेद है|

क्या आप जानते हैं कि 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने सर्वप्रथम संसद को समान नागरिक संहिता से संबंधित कानून बनाने का निर्देश दिया था?


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शाहबानो केस:

मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम केस”, जिसे मुख्य रूप से “शाहबानो केस” के रूप में जाना जाता है| शाहबानो एक 62 वर्षीय मुसलमान महिला और पाँच बच्चों की माँ थीं जिन्हें 1978 में उनके पति ने शादी के 40 साल बाद तलाक दे दिया था। अपनी और अपने बच्चों की जीविका का कोई साधन न होने के कारण शाहबानो पति से गुज़ारा भत्ता लेने के लिये अदालत पहुचीं। उच्चतम न्यायालय में यह मामला 1985 में पहुँचा| न्यायालय ने अपराध दंड संहिता की धारा 125 के अंतर्गत निर्णय दिया जो हर किसी पर लागू होता है चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का व्यक्ति हो।

न्यायालय ने निर्देश दिया कि शाहबानो को निर्वाह-व्यय के समान जीविका दी जाय। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई.वी. चंद्रचूड़ ने कहा कि समान नागरिक संहिता से भारतीय कानून में व्याप्त असमानता दूर होगी जिससे राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में मदद मिलेगी| अतः उच्चतम न्यायालय ने संसद को समान नागरिक संहिता से संबंधित कानून बनाने का निर्देश दिया था|

दूसरी ओर तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार अदालत के इस फैसले से संतुष्ट नहीं थी, सरकार ने इस फैसले का समर्थन करने के बजाय शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अमान्य ठहराया और मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण) कानून, 1986 को लागू किया एवं तलाक मामले में निर्णय लेने का अधिकार मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को दे दिया|

इस कानून के वर्णित प्रयोजन के अनुसार जब एक मुसलमान तलाकशुदा महिला इद्दत के समय के बाद अपना गुज़ारा नहीं कर सकती है तो न्यायालय उन संबंधियों को उसे गुज़ारा देने का आदेश दे सकता है जो मुसलमान कानून के अनुसार उसकी संपत्ति के उत्तराधिकारी हैं। परंतु अगर ऐसे संबंधी नहीं हैं अथवा वे गुज़ारा देने की हालत में नहीं हैं, तो न्यायालय प्रदेश वक्फ़ बोर्ड को गुज़ारा देने का आदेश देगा। इस प्रकार से पति के गुज़ारा देने का उत्तरदायित्व इद्दत के समय के लिये सीमित कर दिया गया।

सरला मुद्गल केस:

यह दूसरा उदाहरण है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने फिर से अनुच्छेद 44 के तहत सरकार को निर्देश दिया था| “सरला मुद्गल बनाम भारत संघ” वाले इस केस में सवाल यह था कि क्या एक हिन्दू पति जिसने हिन्दू कानून के तहत शादी की हो लेकिन दूसरी शादी करने के लिए इस्लाम धर्म को कबूल कर सकता है| सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दूसरी शादी के लिए इस्लाम को कबूल करना निजी कानूनों का दुरुपयोग है| इसके अलावा उसने कहा कि हिन्दू विवाह को केवल हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 के तहत ही भंग किया जा सकता है अर्थात इस्लाम कबूल करने के बाद फिर से की गई शादी हिंदू विवाह कानून के तहत भंग नहीं की जा सकती है और इसे भारतीय दंड संहिता की धारा 494 [5] के तहत एक अपराध माना जाएगा|

जॉन वल्लामेट्टम बनाम भारत संघ केस

केरल के पुजारी, जॉन वल्लामेट्टम ने वर्ष 1997 में एक रिट याचिका दायर की थी जिसमें कहा गया था कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 ईसाइयों के खिलाफ भेदभावपूर्ण है और यह ईसाइयों को अपने इच्छा से धार्मिक या धर्मार्थ प्रयोजन हेतु संपत्ति के दान पर अनुचित प्रतिबंध लगाता है| इस याचिका पर सुनवाई करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश वी.वी.खरे, न्यायमूर्ति एस.बी.सिन्हा और न्यायमूर्ति ए.आर.लक्ष्मणन की पीठ ने धारा 118 को असंवैधानिक घोषित कर दिया| इसके अलावा न्यायमूर्ति खरे ने कहा कि “अनुच्छेद 44 में वर्णित है कि राज्य भारत के सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र में सभी नागरिकों को एकसमान नागरिक संहिता प्रदान करने का प्रयास करेगा| लेकिन दुखः की बात यह है कि संविधान में वर्णित अनुच्छेद 44 को सही ढंग से लागू नहीं किया गया है| लेकिन एकसमान नागरिक संहिता से विचारधाराओं के आधार पर विरोधाभास को दूर करके राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में मदद मिलेगी|

आइये अब हम देखते हैं कि किशोर न्याय अधिनियम 2014 क्या था और क्या यह एकसमान नागरिक संहिता को लागू करने की दिशा में उठाया गया एक कदम था?

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम को लागू करने का फैसला एकसमान नागरिक संहिता की दिशा में एक प्रयास प्रतीत होता है क्योंकि यह अधिनियम मुस्लिम समुदाय के व्यक्तियों को बच्चों को गोद लेने की अनुमति देता है जबकि मुस्लिमों को उनके व्यक्तिगत कानूनों के तहत बच्चे को गोद लेने की अनुमति नहीं है| भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने लैंगिक असमानता को दूर करने और व्यक्तिगत कानूनों के तहत होने वाले गलत प्रथाओं को समाप्त करने के लिए एकसामान नागरिक संहिता लागू करने हेतु पुनः केंद्र सरकार से प्रश्न पूछा है|

इन सभी मामलों को देखने के बाद पुनः यह सवाल उठता है कि एकसमान नागरिक संहिता का महत्व क्या है और इसकी जरूरत क्यों है?

सामान नागरिक संहिता के तहत कानूनों का एक ऐसा समूह तैयार किया जाएगा जो धर्म की परवाह किए बगैर सभी नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करेगा जो शायद वर्तमान समय की मांग है| वास्तव में यह सच्ची धर्मनिरपेक्षता की आधारशिला है| इस तरह के प्रगतिशील सुधार से न केवल धार्मिक आधार पर महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को समाप्त करने में मदद मिलेगी बल्कि देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को मजबूत बनाने और एकता को बढ़ावा देने में भी मदद मिलेगी| वास्तव में हमारी सामाजिक व्यवस्था अन्याय, भेदभाव और भ्रष्टाचार से भरी हुई है एवं हमारे मौलिक अधिकारों के साथ उनका टकराव चलता रहता है, अतः उसमें सुधार करने की जरूरत है| जैसा की हम जानते हैं कि हमारे देश में एक दण्ड संहिता है जो देश में धर्म, जाति, जनजाति और अधिवास की परवाह किए बगैर सभी लोगों पर समान रूप से लागू होती है| लेकिन हमारे देश में तलाक एवं उत्तराधिकार के संबंध में एकसमान कानून नहीं है और ये विषय व्यक्तिगत कानूनों द्वारा नियंत्रित होते हैं|

अब हमें समान नागरिक संहिता के संदर्भ में अनुच्छेद 25 को समझना आवश्यक है|

अनुच्छेद 25 हमें अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करती है| अतः समान नागरिक संहिता लोगों पर जबरदस्ती थोपा नहीं जा सकता है क्योंकि यह स्पष्ट रूप से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन होगा| इसलिए समान नागरिक संहिता और निजी कानूनों को साथ-साथ लागू किया जाना चाहिए। वास्तव में समान नागरिक संहिता में मौजूदा व्यक्तिगत कानूनों के आधुनिक और प्रगतिशील पहलुओं का समावेश किया गया है जिन्हें आसानी से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है|

क्या आप जानते हैं कि गोवा में समान नागरिक संहिता लागू है?

आजादी के बाद गोवा राज्य ने पुर्तगाली नागरिक संहिता को अपनाया है जिसके कारण गोवा के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू है| इस संहिता के तहत किसी विवाहित जोड़े में पति या पत्नी द्वारा अधिग्रहीत सभी परिसंपत्तियों में दोनों का संयुक्त स्वामित्व होता है। यहाँ तक कि माता-पिता भी अपने बच्चों को पूरी तरह से अपनी संपत्ति से वंचित नहीं कर सकते हैं| उन्हें अपनी सम्पति का कम से कम आधा हिस्सा अपने बच्चों को देना पड़ता है| इसके अलावा वे मुस्लिम व्यक्ति जिन्होंने गोवा में अपनी शादी का पंजीकरण करवाया है उन्हें बहुविवाह की अनुमति नहीं है|

निष्कर्ष:

मेरे विचार से एक आदर्श राज्य में नागरिक के अधिकारों की रक्षा के लिए समान नागरिक संहिता एक आदर्श उपाय होगा| बदलते परिस्थितियों के बीच आज वह समय आ गया है कि सभी नागरिकों के  मौलिक और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए धर्म की परवाह किए बगैर समान नागरिक संहिता को लागू किया जाना चाहिए, क्योंकि समान नागरिक संहिता द्वारा धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय अखंडता को भी मजबूत किया जा सकता है।

अंत में हमें महात्मा गांधी के उन शब्दों को याद करना चाहिए, कि "मैं नहीं चाहता हूँ कि मेरे सपनों के भारत में सिर्फ एक धर्म का विकास हो, बल्कि मेरी दिली इच्छा है कि मेरा देश एक सहिष्णु देश हो जिसमें सभी धर्म कन्धे-से-कन्धा मिलाकर आगे बढ़े|”

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Shikha Goyal is a journalist and a content writer with 9+ years of experience. She is a Science Graduate with Post Graduate degrees in Mathematics and Mass Communication & Journalism. She has previously taught in an IAS coaching institute and was also an editor in the publishing industry. At jagranjosh.com, she creates digital content on General Knowledge. She can be reached at shikha.goyal@jagrannewmedia.com
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