वर्तमान में मृदा का स्वास्थ्य, भूमि संरक्षण एवं आजीविका के लिए भूमि का उपयोग आदि सभी प्रमुख समस्याओ का सामना कर रहे हैं. दुनिया की जैविक उत्पादकता, हमारी ऊर्जा, खाद्य और अन्य जरूरतें मिट्टी के स्वास्थ्य, विशेष रूप से इसके पोषक तत्व, पानी और कार्बन संतुलन पर जोकि मृदा के मूल संसाधन हैं, निर्भर करते है. लेकिन अफसोस, यह की आज इसका बहुत तेजी से पतन हो रहा है.
1980 से 1990 के दशक में मृदा के क्षरण की लागत का अनुमान सकल घरेलू उत्पाद के 11% से 26% के आस-पास बताया गया है. लवणता एवं जल जमाव के बेहतर निस्तारण के ऊपर रुपये खर्च होने का अनुमान 120 अरब रुपये से 270 अरब रुपये के आस-पास है. यदि हम पर्यावरण के नुकसान की लागत को ध्यान में रखते हैं तो भारत की आर्थिक वृद्धि के सन्दर्भ में यह प्रति व्यक्ति प्लस 5.66% की तुलना में माइनस 5.73% के आस-पास आती है. भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र 328,700,000 हेक्टेयर में से सिर्फ 142 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर ही शुद्ध रूप से कृषि की जाती है. मृदा स्वास्थ्य का संवर्धन छोटे कृषि उत्पादकों के उत्थान की कुंजी है.
सदाबहार क्रांति क्रांति बिना बेहतर कृषि प्रणाली और सूक्ष्म पोषक तत्व की पूर्ति के असंभव है. वर्तमान में मृदा की पोषण क्षमता को बढ़ाये रखने और उसके पोषक तत्वों की पूर्ति करने के लिए अनुसन्धान और अनेक खनिज पदार्थो की पूर्ति की जरुरत है. हमें मृदा की पोषण क्षमता को बनाये रखने के लिए मिट्टी में फसल के अवशेष को बनाये रखना होगा तभी मृदा की पोषण क्षमता सुरक्षित रह सकती है. हमें बंजर भूमि की क्षमता बढाने और जैविक क्षमता में सुधार लाने पर पुनः उचित तकनीकी सलाह एवं अनुसन्धान की जरुरत है. इसके अलावा हमें मूल्य निर्धारण नीतियों और उर्वरकों के संतुलित इस्तेमाल और संसाधन के बेहतर उपयोग का समर्थन करना चाहिए. हमें भूमि उपयोग एवं भूमि क्षमता को बढाए रखने के लिए स्वयं को अभ्यस्त करना होगा अन्यथा वाटरशेड विकास कार्यक्रम का वास्तविक लक्ष्य अधूरा रह जाएगा.
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