"हकलाहट से तालियों की गड़गड़ाहट तक - एक विजेता का सफर!"

Dec 30, 2019, 18:34 IST

हकलाने की प्रॉब्लम से सफलतापूर्वक जूझने वाले एक जीवन बीमा कंपनी में कार्यरत अभिषेक झा ने इस साल ‘कौन बनेगा करोड़पति’ (केबीसी) में 25 लाख रुपये की धनराशि जीती है. इस आर्टिकल में वे हम सबके लिए अपने प्रेरणादायक विचार और संस्मरण पेश कर रहे हैं.

A Winner's Journey from Stutter to Thunderous Applause
A Winner's Journey from Stutter to Thunderous Applause

‘कौन बनेगा करोड़पति’ (केबीसी) टीवी शो भारत में किसी परिचय का मोहताज नहीं है. इस प्रोग्राम के माध्यम से कई लोगों ने लाखों - करोड़ों रुपये अपने ज्ञान और काबिलियत के आधार पर जीतकर देश-विदेश में खूब नाम कमाया और सम्मान पाया है. आज हम आपके लिए केबीसी – 11 के एक ऐसे ही विजेता अभिषेक झा के प्रेरणादायक विचार और संस्मरण पेश कर रहे हैं जो बचपन से ही हकलाने की समस्या से बड़ी बहादुरी से जूझ रहे थे जिसमें उन्हें अंततः कामयाबी मिली. केबीसी में इन्होंने अपनी काबिलियत से 25 लाख रुपये की धनराशि जीती है. हम भी इनके जीवन-संघर्ष से प्रेरणा पाकर अपने जीवन में तरक्की और प्रसिद्धी हासिल कर सकते हैं. इस आर्टिकल में आइये उनके शब्दों में जानें उनके विचार और संस्मरण:

नमस्कार देवियों और सज्जनों!

मेरा नाम है अभिषेक झा. आप लोग देश के सबसे लोकप्रिय गेम शो पर सदी के महानायक के साथ खेले गए शानदार खेल के लिए मुझे जानते हैं. कौन बनेगा करोड़पति (केबीसी) के मंच पर न सिर्फ मुझे एक  सम्मानजनक राशि जीतने का अवसर मिला, बल्कि इस मंच ने मेरी जिंदगी कई मायनों मे बदल दी. जिन लोगों ने मेरा एपिसोड देखा है, वे जान गए होंगे कि मुझे शुरआत से ही स्टैमरिंग यानी कि  हकलाने की समस्या रही है. स्टैमरिंग मेरे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा रहा है. लेकिन यह मेरी पहचान नहीं है.

Abhishek Jha

  • बचपन के किस्से और हकलाने की समस्या से बहादुरी पूर्वक संघर्ष

मेरा जन्म बिहार के दरभंगा ज़िले के एक गांव मे हुआ है और मेरा पालन-पोषण चंडीगढ़ और इसके पास के पंजाब और हरियाणा के प्रांतो में हुआ है. मैं बचपन से ही एक इंट्रोवर्ट (अंतर्मुखी) स्वभाव का इंसान रहा हूं. मैने पहली बार हकलाकर कब बात की थी यह तो मुझे ध्यान नही है पर मुझे बचपन से ही यह समस्या रही है जिससे मुझे पहली बार मेरी माता जी ने अवगत कराया था. माता जी ने मुझे बताया कि,  जब मैं बात करता हूं तो कई बार अटक-अटक कर बोलता हूं. मैं कई बार एक वाक्य को खत्म करने में  बहुत समय लगाता हूं और सामने वाले व्यक्ति से आंखें चुरा कर बात करता हूं. मुझे उस छोटी उम्र में यह एक बड़ी समस्या नहीं लगती थी, शायद समझ कम थी इसलिए. लेकिन मेरी यह समस्या उन बच्चों के लिए ज़्यादा बड़ी थी जिनके साथ मैं स्कूल या ट्यूशन पढ़ने या फिर, शाम को खेलने के लिए जाता था. वे मुझे मेरी नकल कर के दिखाया करते थे, उस समय मेरे लिए भी यह एक हंसी-मज़ाक वाली बात ही थी. लेकिन समय बीतने के साथ जब न लोगो के ठहाके रुके और न ही मेरे हकलाने की आदत में कोई सुधार हुआ, तब यह समस्या वास्तव में मेरे लिए एक विकराल रूप ले चुकी थी. हकलाना अब समस्या नहीं बल्कि, मेरी आदत, मेरी दिनचर्या का एक हिस्सा बन चुका था. स्कूल मे ऐसा कई बार हुआ जब टीचर ने कक्षा के सभी बच्चों से कोई सवाल पूछा हो और एक उत्सुक बच्चे की तरह मैंने भी जवाब जानते हुए उत्तर देने के लिए अपना हाथ खड़ा किया हो, लेकिन एक समय के बाद मैंने हाथ उठाना छोड़ दिया. क्योंकि अध्यापक के कहने पर मै खड़ा तो हो जाता था लेकिन जवाब जानते हुए भी लड़खड़ाती हुई ज़ुबान से मैं अक्सर अपनी बात रख नही पाता था. एक समय के बाद अगर मुझे किसी सवाल के लिए खड़ा किया जाता था तो पूरी क्लास की नज़रें मुझ पर ही होती थी. मैं क्या कहूंगा इससे किसी को मतलब नहीं था, लेकिन कैसे कहूंगा, कितनी बार रुकूंगा, कितना समय लगाऊंगा, इस बात का मेरे सभी सहपाठियों को बेसब्री से इंतेज़ार रहता था.

मेरे स्कूल के दिन इसी तरह सहपाठियों और दोस्तों के ताने सुनते हुए गुजर रहे थे. सोने-पे-सुहागा तब महसूस होता था जब बाकी की कसर मेरे रिश्तेदार मेरे परिवार वालों के सामने पूरी कर देते थे. मेरे परिवार वाले उस समय किसी रामबाण बूटी की तलाश में थे. उन्हें उम्मीद थी कि शायद कोई ऐसी औषधि या दवा मौजूद हो जिसके इस्तेमाल से उनका बेटा ठीक हो जाए.

  • हकलाने की समस्या से जूझने के बाद कुछ यूं मिली कामयाबी

दवा कहिये या उम्मीद, वह मिली हमें साल 2012 में. उस समय मैं अपनी ग्रेजुएशन के दूसरे वर्ष में पढ़ रहा था और किसी भी तरीके से बस ठीक होना चाहता था. उस समय मोबाइल पर इंटरनेट की शुरआत हो चुकी थी और किसी भी अन्य युवक की तरह ही मेरा भी अधिकतर समय वहीं बीतता था. मैं अक्सर नेट पर हकलाने से छुटकारा पाने के लिए अलग-अलग उपाय ढूंढा करता था. गूगल भी मुझे कई बार अजीबो-गरीब नुस्खों से अवगत कराता था. ये वही नुस्खे थे जो समाज वाले अक्सर मेरे माता-पिता को बताया करते थे, जैसेकि शंख बजाना, मुंह में कंकड़ रखकर बात करना आदि. हालांकि ऐसे किसी भी नुस्खे ने आम-जीवन में कभी हमें फायदा नहीं दिया. मैंने अपने दोस्तों से स्पीच थेरेपी के बारे में सुना था लेकिन आमतौर पर जिन स्पीच थेरेपीज़ के बारे में गूगल बताता था, वे थेरेपीज़ काफी महंगी होती थीं. उनके सेशन्स की फीस मेरे पापा की सालाना कमाई के बराबर थी जिस कारण उनके बारे में सोचना भी मेरे लिए प्रैक्टिकल नही था. 

एक रात सोने से पहले मैं मोबाइल पर हकलाने से छुटकारा पाने के लिए कुछ उपाय ढूंढ रहा था जैसाकि  मैं अक्सर किया करता था. लेकिन उस रात मैने अपनी सर्च में चीप या फ्री जैसे शब्द जोड़ दिए. उस समय मुझे दी इंडियन स्टैमरिंग एसोसिएशन (टीआईएसए) के बारे में पता चला. विकिपीडिया से मुझे पता चला कि, यह एक पब्लिक सेल्फ हेल्प ट्रस्ट है जोकि पूरे भारत वर्ष में फैला हुआ है. वहां से मैं एक लिंक के द्वारा इनके फेसबुक पेज पर गया और बड़ी हिम्मत जुटाकर मैंने उन्हें मैसेज किया. उन्होंने मुझसे मेरा शहर पूछकर, चंडीगढ़ में रहने वाले अपने एक मेम्बर का नंबर मेरे साथ शेयर किया. कॉल करने से बेहतर मुझे मैसेज भेजना लगा क्यंकि शायद बात करने की हिम्मत नहीं थी. एक लंबे-चौड़े मैसेज में मैंने अपने मैसेज करने का कारण और अपने बारे में काफी कुछ बताने की कोशिश की थी. जिसके बाद जवाब भी मुझे मैसेज में ही मिला और उन्होंने मुझे रविवार को एक पब्लिक पार्क में मिलने के लिए बुलाया. मैने दिए गए समय और जगह पर पहुंचकर उन्हें पहली बार कॉल किया हालांकि उस कॉल का अनुभव मेरे लिए काफी चौकाने वाला रहा क्योंकि यहां से मैं हकला के बात कर रहा था तो वहां से जवाब भी मुझे हकलाते हुए ही मिल रहा था. अब यह कॉमेडी थी या ट्रेजेडी, मेरी समझ से परे थी. जब मैं उनसे मिला तो वे मुझसे भी ज़्यादा ज़्यादा रुक-रुक कर बात कर रहे थे. मैं हैरान था क्योंकि इस शख्स के पास मैं ठीक होने की उम्मीद लेकर आया था. जैसे ही हमारी बात शुरू हुई उन्होंने मुझे बताया कि उनका नाम अनुपिन्दर सिंह है और वे विशेष रूप से मुझसे मिलने के लिए ही 60 किमी दूर पटियाला से आये हैं. उन्होंने मेरे बारे में कुछ सवाल पूछे और उस पार्क में ही दूर बैठे एक अनजान परिवार से हकलाते हुए मझे बात करने के लिए कहा. मैने असहजता के साथ मना किया तो वे खुद मुझे लेकर उस परिवार के पास पहुंचे और उस परिवार की इजाज़त लेते हुए उनसे कुछ सवाल पूछने लगे जैसेकि, क्या आप हकलाने को एक बीमारी समझते हैं? क्या आप किसी हकलाने वाले व्यक्ति को जानते हैं? अगर आप ऐसे किसी व्यक्ति से मिलते है तो आप की पहली प्रतिक्रिया क्या होती है? उस परिवार ने उनकी पूछी हुई हरेक बात का बड़े ही आराम से और सहज तरीके से जवाब दिया. जब अनुपिन्दर उस परिवार का धन्यवाद करते हुए उनसे दूर चले गए तो जो पहली सीख उन्होंने मुझे सिखाई वह थी स्वीकृति अर्थात अगर आप किसी समस्या या बीमारी का हल चाहते हैं तो सब से पहले उस समस्या की  पहचान करना बहुत ज़रूरी है. जिस तरह, अगर कोई बच्चा पढ़ाई में कमज़ोर है तो वह पढ़ाई छोड़ेगा नही, बल्कि पहले से भी ज़्यादा मेहनत करेगा. इसी तरह, कम बोलने से या ना बोलने से हकलाने की समस्या खत्म नहीं होगी, बल्कि इसके ठीक विपरीत, यह बद-से-बदतर होती जाएगी. फिर वहां से मेरी और टीआईएसए की जर्नी शुरू हुई. उस समय मैं चंडीगढ़ के शुरआती चुनिंदा मेम्बर्स में से एक था लेकिन आज की तारीख में कई लोग, जिनमें रिटायर्ड अफ़सरों से लेकर स्कूल जाने वाले बच्चे तक शामिल हैं, इस ग्रुप का हिस्सा हैं और हम सभी एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं. हम सब हफ्ते में एक बार ज़रूर मिलते हैं. अनजान लोगों से बात करना, लोगों के सामने ऊंची आवाज़ में किताब या अखबार पढ़ना जैसी कई ऐसी एक्टिविटीज़ हैं जो हम सभी मिलकर करते हैं. हम लोग साल में एक बार भारत के किसी भी शहर में अपनी नेशनल कॉन्फ्रेंस रखते हैं, जहां पूरे देश से आये टीआईएसए के सदस्य एवं अन्य लोग, चाहे वे हकलाते हों या ठीक हो चुके हों, अपना अनुभव साझा करते हैं.

  • केबीसी में जीत का संस्मरण

KBC

मैंने साल 2011 में केबीसी मे जाने के लिए पहला मैसेज भेजा था और उस वर्ष बिहार के सुशील कुमार ने  केबीसी में 5 करोड़ रुपये की धनराशि जीतकर इतिहास रचा था. उस समय से यह बात मेरे दिल में थी कि एक दिन इस शो में जाकर बच्चन साहब के सामने अपनी बात ज़रूर रखेंगे. फिर, 9 साल के लगातार प्रयास के बाद हमें यह मौका मिला.  केबीसी की हाल ही में दिखाई गई कड़ी - 11 में. हर साल की तरह ही, इस साल भी हमनें मैसेज भेजे. लेकिन इस बार किस्मत की घंटी बजी और हमें अमृतसर में ऑडिशन के लिए बुलाया गया. लेकिन ऑडिशन के 2 महीने बाद भी फ़ोन नही आया और इस बीच टीवी पर केबीसी शुरू हो चुका था. उन्हीं दिनों, अगस्त के महीने में मुझे +9122 से कॉल आया, यह मेरे जीवन में दूसरी बार था जब मुझे इस नंबर से कॉल आया था. इस नंबर से मुझे पहला कॉल अमृतसर ऑडिशन के बुलावे के लिए आया था. मैं मान चुका था कि यह कॉल केबीसी टीम से ही होगा. कॉल उठाते ही उन्होंने मेरी बेसिक डिटेल्स कन्फर्म कीं और मुझे मुम्बई में ‘फास्टेस्ट फिंगर फर्स्ट’ खेलने के लिए बुलाया गया. अगले कुछ दिन मेरी जिंदगी के सबसे बेहतरीन दिनों में से एक थे. केबीसी की टीम मेरे शहर में शूटिंग के लिए आई. मेरा मोहल्ला, मेरे दोस्त, मेरा ऑफिस, मेरा शहर, हर तरफ एक उत्सव का माहौल था. वे लोग हर किसी से मिले और उन्हें अपने कैमरे में कैद कर लिया. मैंने अपने जीवन में पहली बार, ख़ासकर केबीसी में भाग लेने के लिए ब्रांडेड कपड़े खरीदे थे. फिर, 15 सितंबर को मैं अपने पूरे परिवार सहित पहली बार फ्लाइट में बैठा और सपनों की नगरी में पहुंचा. अगली सुबह मुझे और 9 अन्य खिलाड़ियों को सपरिवार शूटिंग लोकेशन पर ले जाया गया. शूटिंग लोकेशन पर पहुंचने के बाद केबीसी  का वह सेट, जिसे हम 19 सालों से टीवी पर देखते आ रहे थे, वह अब हमारी आंखों के सामने था. हम लोग ‘फास्टेस्ट फिंगर फर्स्ट’ की तैयारी में लगे हुए थे कि तभी सेट पर सदी के महानायक की एंट्री हुई और पूरा सेट तालियो की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. वे शख्स, जिनके फैन मेरी दादी से लेकर हमारे घर के बच्चे भी हैं, उन्हें देखकर मैं और मेरा सारा परिवार भावविभोर हो गये. बच्चन सर के आते ही खेल शुरू हुआ. मैने सभी सवालों के जवाब तो सही दिए थे लेकिन, सबसे कम समय में अपने जवाब न दे पाने के कारण, पहले 2 खिलाड़ियों में मेरा नंबर नही आया. लेकिन तीसरी बार मैने सबसे तेज़ जवाब दिया और बच्चन साहब ने मेरा नाम लिया. खुशी से ऑडियंस में बैठे मेरे भाई ने DAB (एक डांस स्टेप) किया. अपने भाई को देखकर मैंने भी DAB किया और मुझे देखकर बच्चन सर ने भी DAB किया. जिसके बाद हमारा खेल शुरू हुआ. थोड़ा-सा हंसी मज़ाक, थोड़ा-सा प्रेशर और आखिरकार 25 लाख की धनराशि पर आकर मेरा खेल खत्म हुआ. केबीसी का मेरा यह खेल मेरी जिंदगी के सबसे सुखद अनुभवों मैं से एक रहा है. जब बच्चन साहब ने इतने बड़े मंच पर पूरी दुनिया के सामने कहा कि हकलाना कोई बीमारी नहीं है और उन्हें तो हकला शब्द ही पसंद नहीं है. तब मुझे ऐसा लगा कि जो बात मैं सबको एक लंबे समय से समझाना चाहता था, उसमें आज मैं काफी हद तक सफल रहा. केबीसी में जाकर मुझे धनराशि ही नहीं मिली, बल्कि समाज में मान-सम्मान पाने का भी मौका मिला. अगर मैं हकलाने को विधि का विधान मानकर बैठ जाता तो शायद हकलाना आजीवन मेरी किस्मत बन चुका होता. जीवन में कभी हार न मानने की सीख हर बच्चे को दी जाती है. लेकिन बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो बड़े होकर भी इसे याद रख पाते हैं. मैं आज भी कई बार कुछ शब्दों पर अटक जाता हूं. लेकिन यकीनन यह मेरी पहचान नही है क्योंकि मेरी पहचान इससे बढ़कर है.

अभिषेक झा: एक संक्षिप्त परिचय

Abhishek Jha in KBC

अभिषेक झा का जन्म बिहार में और पालन-पोषण चंडीगढ़ में हुआ है. इन्होनें DAV कॉलेज, चंडीगढ़ से मास कम्युनिकेशन में PG डिप्लोमा हासिल किया है और इस समय एक प्राइवेट जीवन बीमा कंपनी में बतौर सीनियर मैनेजर काम कर रहे हैं. इन्हें नए लोगों से मिलना और रीडिंग करना पसंद है और ये एक भावी यू ट्यूबर हैं.

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