समाज सेवा बदलाव की तड़प

Aug 30, 2018, 13:37 IST

गूंज के संस्थापक और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अंशु गुप्ता भी एक ऐसे ही राही हैं, जिनमें बदलाव की तड़प है। जो भले ही एक समय अकेले इस राह पर चले थे, लेकिन आज उनका सफर 22 राज्यों तक फैल चुका है। अंशु गुप्ता से ही जानते हैं सरोकारों के प्रति जुनून और सुकून के उनके सफर की दास्तान.

Social Work: The Catalyst of Change
Social Work: The Catalyst of Change

राह चलते, सड़क पर, शहर या गांव-कस्बे में आए दिन हम कुछ कुछ ऐसा देखते हैं जो हमें विचलित कर देता है। हम में से अधिकतर लोग कुछ समय बाद इन्हें भुलाकर व्यस्त दिनचर्या में खो जाते हैं। पर कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें ये बातें चैन नहीं लेने देतीं और आखिरकार वे निकल पड़ते हैं सरोकारों की राह पर। ‘गूंज’ के संस्थापक और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अंशु गुप्ता भी एक ऐसे ही राही हैं, जिनमें बदलाव की तड़प है। जो भले ही एक समय अकेले इस राह पर चले थे, लेकिन आज उनका सफर 22 राज्यों तक फैल चुका है। अंशु गुप्ता से ही जानते हैं सरोकारों के प्रति जुनून और सुकून के उनके सफर की दास्तान.......

मैं 1970 में मेरठ में पैदा हुआ था। पिता सरकारी नौकरी में थे। तीन भाई और एक बहन में मैं सबसे बड़ा हूं। ईमानदार मध्यमवर्गीय परिवार से हूं। ननिहाल देहरादून में थी। शुरुआती स्कूली पढ़ाई मेरठ में हुई। 1987 में जब बारहवीं देहरादून से कर रहा था, उसी दौरान एक दुर्घटना की वजह से एक साल तक बेड पर रहा। उसी दौरान मैंने भ्रष्टाचार को करीब से महसूस किया। दून हॉस्पिटल में मेरा ऑपरेशन होना था। सुबह-सुबह ही डॉक्टर ने चार सौ रुपये की रिश्वत मांग ली। अमूमन ऐसे मौके पर कोई मना नहीं करता, पर पापा ने ऐसा करने से मना कर दिया। इस पर यह तक कहा गया कि लड़का मर गया तो क्या करेंगे। पापा ने कहा कि किस्मत में जो होगा, देखा जाएगा पर रिश्वत तो कतई नहीं दूंगा। उसका नतीजा यह हुआ कि मेरा पैर पूरी तरह ठीक नहीं हो सका। आज भी मैं चौबीसों घंटे पेन में रहता हूं। खैर, अब तो इस दर्द के साथ जीने की आदत पड़ गई है। हां, अपने पैरेंट्स का इस बात का शुक्रगुजार हूं कि ‘रिश्वत के बिना अपने पैरों पर खड़ा हूं। इसके बाद मैंने ग्रेजुएशन देहरादून से ही किया। उन दिनों दून हॉस्पिटल के पास कबाड़ी मार्केट से मेरा भाई किलो के हिसाब से पत्रिकाएं ला देता था। कुछ लिखना भी शुरू कर दिया था, जिसमें से कुछ-कुछ छपने भी लगा।

सिखाते हैं आत्मसम्मान से जीना

ज्यादातर लोग समझते हैं कि हम चैरिटी में सिर्फ कपड़े बांटते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। हम मुफ्त में कुछ नहीं देते। हमारा मानना है कि मुफ्त की चीजें दया का पात्र बना देती हैं। हम लोगों का आत्मसम्मान जगाते हैं। हमने तय किया कि हम ‘डोनेट’ नहीं, ‘डिस्कार्ड’ करेंगे। आज भी सरकारें, ज्यादातर एनजीओ/वालंटियर/सीएसआर के तहत मुफ्त में बांटने की नीति अपनाई जाती है। गांवों की ताकत वहां के लोगों का आत्मसम्मान होती है। हम खुद तय नहीं करते कि गांवों में हमें क्या करना है, बल्कि गांव के लोग तय करते हैं कि उनकी जरूरतें क्या हैं। समस्या को ढूंढ कर उसका खुद से समाधान करें और उसके बाद हम उसके एवज में उन्हें उनकी आवश्यकता की वस्तुएं देते हैं। यह उनके लिए अवॉर्ड की तरह होता है।

दिल्ली का रुख

उन्हीं दिनों मैंने दिल्ली से जर्नलिज्म करने की इच्छा जताई और एक मौका देने को कहा। परिवार में जर्नलिज्म प्रोफेशन के बारे में तो किसी को पता भी नहीं था। हालांकि मेरे माता-पिता दोनों बहुत खुले मन के थे। उन्होंने मुझे रोका नहीं। खुद दिल्ली जाकर आइआइएमसी का प्रॉस्पेक्टस लाकर दिया। कॉलेज के समय में कोई मेरा दोस्त नहीं था। दिल्ली में नौ महीने में ही लोकप्रियता मिलने लगी। अंग्रेजी ज्यादा नहीं आती थी, पर लिखना-पढ़ना ज्यादा हो गया। जर्नलिज्म के बाद मैंने दूसरे साल एडवरटाइजिंग ऐंड पीआर में दाखिला लिया। दूसरे साल में ही मिनी मिलीं, जो आज मेरी पत्नी हैं। उन्होंने हर कदम पर मेरा साथ दिया।

आपदा से सबक

1991 में उत्तर काशी में भीषण भूकंप आया। मैं स्टूडेंट था। भूकंप के बाद वहां चला गया था। पहली बार गांव देखे। उतनी बड़ी आपदा देखी। हर तरह का दुख देखा। पहाड़ी लोगों का ऊंचा माथा देखा। मैं दो हफ्ते तक वहां भटकता रहा। वहां एक ऐसे आदमी पर मेरी नजर पड़ी, जो जूट की बोरी पहने हुए था। वह कह रहा था कि मुझे कंबल दे दो, नहीं तो मैं मर जाऊंगा। मुझे उस समय तो कुछ नहीं लगा। लेकिन शाम होने पर जब मुझे भी ठंड लगने लगी, तो मैंने भी कंबल खोजना शुरू किया और फिर मुझे एक जगह कंबलों के ढेर के बीच खुले में रात बितानी पड़ी। हम बुनियादी जरूरतों के रूप में रोटी, कपड़ा और मकान की बात करते हैं, पर मुझे उस दौरान लगा कि रोटी और मकान से भी ज्यादा अहमियत कपड़े की है।

जब हबीब भाई ने हिलाया

यह 1992 की बात है। मैं अखबारों-पत्रिकाओं के लिए ह्यूमन एंगल की स्टोरी करता था। उसी दौरान साप्ताहिक हिंदुस्तान के लिए एक स्टोरी हबीब भाई पर की थी, ‘लाश को ढोती जिंदा लाशें’। दरअसल, एक दिन मैं पुरानी दिल्ली में घूम रहा था कि एक रिक्शा देखा। उस पर लिखा था, ‘दिल्ली पुलिस का लावारिस लाश उठाने वाला’। उस वक्त हबीब भाई को हर डेड बॉडी पर 20 रुपये और दो मीटर कपड़ा मिलता था। यह उनका फुलटाइम काम था, जिस पर उनका परिवार पलता था। उनके साथ-साथ एक हफ्ता रहा। तरह-तरह की डेड बॉडीज देखीं। आज भी इसके बारे में सोचकर दहल जाता हूं। हबीब भाई ने बताया था कि जाड़ों में काम बढ़ जाता है (क्योंकि हर दिन 10-12 लाशें उठानी पड़ती हैं, जबकि गर्मियों में यह संख्या चार-पांच होती थी)। उसी दौरान उनकी बिटिया की एक बात मुझे आज भी नहीं भूलती, जिसने कहा था कि मुझे ठंड लगती है तो मैं लाश से चिपक जाती हूं क्योंकि वह तंग नहीं करती। उस समय जरा भी अंदाजा नहीं था कि ‘गूंज’ जैसी कोई संस्था शुरू करनी है। पर अच्छा हुआ कि उस समय वह सब मैंने देख लिया। उसी समय एहसास हुआ कि लोग ठंड से नहीं, बल्कि कपड़े की कमी की वजह से मरते हैं।

ऐसे पड़ी ‘गूंज  की नींव

आइआइएमसी से निकलने के बाद पावर कॉरपोरेशन में हम दोनों का दिल्ली में ही सलेक्शन हो गया था, जहां मैंने 1992 से 1995 तक काम किया। उसके बाद एस्कॉट्र्स में काम किया। 1998 में मेरी पत्नी ने बीबीसी ज्वाइन किया और मैंने नौकरी छोड़ दी। हमने तय किया कि पत्नी नौकरी करेगी और मैं अपने मन का काम करूंगा। दरअसल, पिछली बातें मुझे चैन नहीं लेने दे रही थीं और हम लोगों के लिए कुछ करना चाहते थे। हमने अपनी शादी के कपड़ों से छोटी-सी यूनिट दिल्ली के सरिता विहार से ही शुरू की। हमने एंटीक वस्तुओं की एक शॉप भी किराये पर ली थी और 2001 के गुजरात भूकंप के समय सहायता का सारा काम वहीं से किया।

22 राज्यों में पहुंच

जीरो से शुरू करके आज हमारी पहुंच 22 राज्यों में है। हर महीने करीब 3 हजार टन से ज्यादा कपड़े और अन्य वस्तुएं हम इन राज्यों में लोगों के बीच वितरित कराते हैं। इन दिनों केरल के बाढ़ पीड़ितों के लिए हमारा सबसे बड़ा राहत अभियान चल रहा है। देश के विभिन्न हिस्सों में हमने कई हजार किलोमीटर सड़कें श्रमदान से बनवाई हैं। तालाब खुदवाए हैं। सफाई कराई है। श्रमदान की ताकत को हमने फिर से स्थापित किया है। लोगों में एहसास जगाया है कि यह श्रमदान आप अपने गांव, अपनी जमीन के लिए कर रहे हैं। इस अभियान को हमने एक तरह से आंदोलन की शक्ल दे दी है। इसे नासा ने नौ इनोवेशन में चुनकर सम्मानित किया था। लोग पूछते हैं कि आपकी उपलब्धि क्या है। सबको लगता है कि गाड़ी, बंगला और प्रॉपर्टी कर लेना ही उपलब्धि है, पर हमारे लिए हमारा काम ही हमारी उपलब्धि है, जिसमें हमें सुकून मिलता है, संतुष्टि मिलती है।

Jagran Josh
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Education Desk

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