सामान्यतः भू-आकृतियों का विकास अंतर्जात शक्तियों (ज्वालामुखी, भूकंप आदि) के प्रभाव से होता है. परंतु अंतर्जात शक्तियों द्वारा निर्मित भू-आकृतियों पर नदी, हिमनदी, पवन, भूमिगत जल, महासागरीय तरंगों का प्रभाव पड़ता है और नई भू-आकृतियों का विकास होता है. भू-आकृतियों के विकास के क्रम में पदार्थ का स्थानांतरण लम्बवत एवं पार्श्व (Vertical and lateral) दोनों दिशाओं में होता है. पदार्थ के स्थानांतरण के फलस्वरूप उच्च भू-भागों का अपरदित पदार्थ निम्न भू-भागों में निक्षेपित हो जाता है. इस लेख में हम भू-आकृतियों के विकास की विभिन्न विधियों का विवरण दे रहे हैं.
भू-आकृतियों के विकास की विभिन्न विधियों को तीन शीर्षकों के अंतर्गत समझा जा सकता है:
1. तैथित कालक्रम (Chronological Order)
इस विधि में भू-आकृतियों के विकास में समय के योगदान का मूल्यांकन किया जाता है. इस विचारधारा के अनुसार भू-आकृतियों का विकास एकाएक न होकर कई भूगर्भिक युगों में हुआ है. भूतल पर प्राचीन चट्टानों की उत्पत्ति या तो नीहारिका के पदार्थ के सिकुड़ने से हुई है या ज्वालामुखी उद्गारों के कारण लावा के जमने के कारण हुई है. विभिन्न प्रकार के भू-आकृतियों का विकास इन्हीं प्राचीन एवं कठोर चट्टानों से हुआ है. समय के साथ-साथ भू-पृष्ठ की संरचना का भी भू-आकृतियों के विकास में महत्वपूर्ण स्थान है.
2. जननिक अथवा विकासवादी विचारधारा (Genetic or Evolutionary Concept)
इस विचारधारा के अनुसार भू-आकृतियों के विकास में प्रक्रम (Process) का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है. विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की जलवायु होने के कारण विभिन्न प्रकार के प्रक्रम सक्रिय हैं जो विभिन्न प्रकार की भू-आकृतियों का विकास करते हैं. “इमिलियानी” के अनुसार, “उत्थित अर्थात ऊपरी भू-भाग पर बहुत-सी परिचित भू-आकृतियों का विकास सागरीय तल पर ही आरंभ हो जाता है.”
पृथ्वी पर भू-आकृति विकास के प्रभावी प्रक्रम तथा उनसे निर्मित भू-आकृतियां
“डेविस” के अनुसार, “जैसे ही कोई भू-भाग भूगर्भिक शक्तियों द्वारा समुद्र तल से ऊपर उठता है वैसे ही बाह्य शक्तियां उस भू-भाग पर अपना प्रभाव डालना शुरू कर देती है. नदियां अतिरिक्त जल को समुद्र तल तक ले जाती है. समुद्र तल को वैश्विक आधारतल (Universal base level) कहा जाता है. जल को वैश्विक आधारतल तक ले जाने में नदी अपनी परिच्छेदिका का निर्माण करती है और विभिन्न प्रकार की भू-आकृतियों का निर्माण आरंभ हो जाता है.
3. क्षरण विचारधारा (Erosional Concept)
इस विचारधारा का प्रतिपादन इटली के जलीय इंजीनियरिंग के विद्वान द्वारा किया गया था, लेकिन भूगोल में इसे लोकप्रिय बनाने का श्रेय अमेरिका के भूगर्भशास्त्रियों को दिया जाता है. जे. डब्ल्यू. पावेल (J.W.Pawell) ने 1875 में आधारतल की संकल्पना प्रस्तुत की और बताया कि कोई भी नदी आधारतल से नीचे अपरदन नहीं कर सकती है. अपरदन की यह सीमा सागर तल द्वारा निश्चित होती है. उन्होंने ढालों की उत्पत्ति का नियम भी प्रस्तुत किया.
डब्ल्यू. एम. डेविस (W.M. Davis) ने 1889 में समप्रायः मैदान (Peneplain) की अवधारणा प्रस्तुत की. इससे पहले जेम्स हट्टन (James Hutton, 1726-1797) ने भू-आकृतिक विज्ञान की एकरूपतावाद (Uniformitarianism) की विचारधारा को प्रस्तुत किया और बताया कि वर्तमान भूत की कुंजी है (The Present is the Key to the Past). इसका अर्थ यह है कि पृथ्वी तल के आधुनिक स्वरूप, स्थलाकृतियों की बनावट तथा आकार को देखकर इसके इतिहास को समझा जा सकता है. हट्टन ने क्षरण द्वारा निर्मित विभिन्न भू-आकृतियों का वर्णन किया है. कार्ल गिलबर्ट (Karl Gilbert, 1843-1918) ने नदियों की छः गुना शक्ति का प्रतिपादन किया और क्षरण द्वारा ढालों की उत्पत्ति पर प्रकाश डाला. एल.सी. किंग (L.C. King) ने क्षरण की विचारधारा का समर्थन करते हुए बताया कि भू-आकृतियों के विकास के लिए ढालों की उत्पत्ति महत्वपूर्ण है.
उपरोक्त विवरण को पढ़ने के बाद इस बात से भलीभांति परिचित हो गए होंगे कि पृथ्वी पर भू-आकृतियों के विकास की प्रमुख विधियां कौन-सी हैं.
पृथ्वी पर विभिन्न भू-आकृतियों का निर्माण कैसे होता है?
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