प्रसिद्ध तिरुपति वेंकेटेश्वर मंदिर का लड्डू इन दिनों सुर्खियों में है। यह लड्डू अपने अनोखे स्वाद के लिए जाना जाता है, हालांकि इन दिनों यह घी अपनी शुद्धता को लेकर सवालों के कठघड़े में पहुंच गया है। लड्डू बनाने को लेकर इसके निर्माण में अशुद्धता से जुड़े कई आरोप लगे हैं, जिससे देशभर की मीडिया का ध्यान इस तरफ गया है।
वहीं, इससे लोग भी आहत हैं। इसकी जांच पर कई एजेंसियां काम कर रही हैं। इस लेख के माध्यम से हम जानेंगे कि आखिर 300 साल पुरानी इस परंपरा का कैसे पालन किया जा रहा है।
300 साल पुरानी है परंपरा
आपको बता दें कि लड्डू को सबसे पहले दो अगस्त, 1715 को मंदिर में प्रसाद के रूप में बांटा गया था। लड्डू को मंदिर के अधिकारियों द्वारा तैयार करवाया गया था। कुछ पुराने शिलालेखों से पता चलता है कि लड्डू का अस्तित्त्व 1480 का है। ऐसे में भारत में लड्डू नया नहीं है। मंदिर में लड्डू बनाने की परंपरा 300 साल से पुरानी है, जिसका आज भी पालन किया जा रहा है।
कहां तैयार होते हैं लड्डू
इन लड्डुओं को प्रतिदिन मंदिर की रसोई में तैयार किया जाता है, जिन्हें हम पोटू के नाम से जानते हैं। लड्डू को तैयार करने की प्रक्रिया को दित्तम के नाम से जाना जाता है। लड्डू बनाने में विशेष रूप से ध्यान दिया जाता है, जिससे लड्डू में प्रत्येक सामाग्री का बराबर मिश्रण हो। साथ ही लड्डू बनाने के बाद प्रयोगशालाओं में इसकी जांच भी की जाती है।
हर महीने लगती है इतनी सामाग्री
लड्डुओं को बनाने में हर महीने में 42 हजार किलो घी, 22,500 किलो काजू, 15 हजार किलो किशमिश और 6 हजार किलो इलायची लगती है। इससे तीन प्रकार के लड्डू बनाए जाते हैं, जिसमें छोटे(40 ग्राम), मध्यम(175 ग्राम) और बड़े(750 ग्राम) प्रकार के लड्डू होते हैं। छोटे लड्डुओं को मंदिर में प्रसाद के रूप में निश्शुल्क दिया जाता है।
प्रत्येक दिन तीन लाख लड्डुओं का वितरण
मंदिर में प्रत्येक दिन तीन लाख लड्डुओं का वितरण किया जाता है। इससे मंदिर प्रबंधन को करीब 500 करोड़ रुपये की वार्षिक आय होती है। आपको बता दें कि साल 2014 में मंदिर के लड्डू को जीआई टैग भी मिल चुका है। यानि, कोई और इस नाम से लड्डू नहीं बेच सकता है।
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