आनुवांशिक रूप से संशोधित जीव को जीवों (जैसे कि पौधे, जानवर या सूक्ष्म जीवों) के रूप मे परिभाषित किया जा सकता है जिसमे आनुवांशिक पदार्थ (डीएनए) को इस तरह से संशोधित किया जाता है जो प्राकृतिक रूप से संसर्ग क्रिया और / या प्राकृतिक पुनर्संयोजन की क्रिया से उत्पन्न नहीं होता। इस तकनीकी को प्रायः “आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी” या जीन तकनीक, और कभी कभी डीएनए पुनर्संयोजक तकनीक या आनुवांशिक अभियांत्रिकी भी कहा जाता है।
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आनुवांशिक संशोधित फसल का उत्पादन क्यों किया जा रहा है?
आनुवांशिक संशोधित फसल / खाद्य पदार्थो का उत्पादन और विपण हो रहा है क्योंकि इससे इन खाद्य पदार्थों के उत्पादक या उपभोक्ता को कुछ कथित लाभ हो रहा है। इसका मुख्य उद्देश्य उपभोक्ताओं को कम कीमत के उत्पाद के साथ- साथ उत्पादकों को अधिक से अधिक लाभ (स्थायित्व या पोषक महत्व के संदर्भ मे) या दोनों है। इन आनुवांशिक संशोधित फसल की वकालत करने वाले लोगों का कहना है कि जिस रफ़्तार से दुनिया की आवादी बढ़ रही है उसके हिसाब से खाद्य पदार्थों का उत्पादन नही बढ़ रहा है इसलिए उत्पादन को कई गुना बढ़ाने के लिए खाद्य पदार्थो के जीनों में परिवर्तन करके खाद्य पदार्थों का उत्पादन बढ़ाना समय की मांग है ।
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पेट्रोलियम उत्पाद क्या होता है और इसका उत्पादन भारत में कहां किया जाता है?
वर्तमान मे बाजार मे उपलब्ध आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलों का मुख्य उद्देश्य, पौधो मे कीट या विषाणुओं से होने वाले रोगो से फसलों को बचने की सख्त जरुरत है जो कि उनके जीनों में परिवर्तन करके ही संभव है ।
क्या आनुवांशिक रूप से संशोधित खाद्य पदार्थो की सुरक्षा की जांच पारंपरिक खाद्य पदार्थों से अलग तरीके से की गयी है?
इसमें कोई शक नहीं है कि 1970 और 1980 के दशकों में हमने खाद्यान्न उत्पादन में जो जबरदस्त तरक्की की है, उससे हममें खाद्य सुरक्षा का भाव जागा है। लेकिन जिस तरह से जनसंख्या वृद्धि हो रही है, उसे देखते हुए स्थिति संतोषजनक नहीं लगती। भारत की अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद (आइसीआरआइईआर) के एक कार्य-पत्र के मुताबिक, वर्ष 2020 तक भारत को अपनी पैदावार दोगुनी करनी होगी। मांस, मछली और अंडों के लिए मांग में 2.8 गुना वृद्धि हो जाएगी। अनाज के लिए मांग में दोगुना इजाफा होगा। फलों और सब्जियों के लिए मांग में 1.8 गुना की बढ़ोतरी का अनुमान है और दूध की मांग 2.6 गुना होने की अपेक्षा है। ये सभी अनुमान वर्ष 2007 की मांग पर आधारित हैं। मांग में इस प्रगति के चलते अगले 10 से 15 सालों में भूमि तथा जल संसाधनों पर और ज्यादा दबाव पड़ेगा। अगर कपास को छोड़ दें तो वर्ष 1991 और 2007 के बीच भारत में अन्य सभी फसलों की पैदावार स्थिर रही।
भारत में कृषि से सम्बंधित क्रांतियाँ
मानव स्वास्थ्य के लिए चिंता का मुख्य विषय क्या है ?
जो लोग इन खाद्य पदार्थों का विरोध कर रहे है उनका मुख्य टकर यह है कि इन संसोधित खाद्यों को खाने से कई तरह की बिमारियों के होने का खतरा पैदाहो गया है क्योंकि इन खाद्यों का जीन बदल दिया जाता है जो कि मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर सकता है । लेकिन ये सब तर्क अभी तक सच साबित नहीं हुए हैं क्योंकि अमेरिका जो कि इन खाद्यों का कई दशकों से इस्तेमाल कर रहा है वहां पर आज तक कोई बीमारी क्यों सामने नहीं आई । इसी प्रकार का भ्रम भारत में हरित क्रांति के समय इस्तेमाल किये गए जिन्नों के बारे में भी किया गया था लेकिन इन जिन्नों ने भारत को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बना दिया है जो कि किसी से छिपा नहीं है ।
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कृषि मंत्रालय के आंकड़े यह जाहिर करते हैं कि गेहूं, धान, दालों, सोयाबीन और गन्ने की उपज में वृद्धि मात्र 0.19 प्रतिशत से लेकर 1.4 प्रतिशत सालाना रही है। हालांकि इसी दौरान कपास की पैदावार 4.38 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ी है, जो वास्तव में यह दर्शाती है कि जीएम तकनीक की बदौलत कितनी तरक्की हुई है। अब तक बीटी कॉटन ही ऐसी एकमात्र जीएम फसल है, जिसे भारत में खेती के लिए मंजूरी दी गई है और इस किस्म ने भारतीय किसानों को अत्यधिक लाभ पहुंचाया है। आज करीब 58 लाख भारतीय कपास किसान ढाई करोड़ एकड़ से ज्यादा जमीन पर बीटी कॉटन उगा रहे हैं। साल 2002 में इस तकनीक के भारत में इस्तेमाल शुरू किए जाने के बाद से कपास का उत्पादन दोगुना हो चुका है। कभी भारत कपास को आयात किया करता था। आज यह दुनिया में कपास का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है। बीटी कॉटन से उत्पाद बढ़ा और कीटनाशकों की खपत कम हुई। इन दोनों पहलुओं के चलते किसानों की आमदनी में लगभग 31,500 करोड़ रुपये का इजाफा हुआ है। यह एक अभूतपूर्व सफलता है, जो इस तकनीक के अमल में आने के बाद मात्र सात सालों में प्राप्त की गई है।
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इससे साबित होता है कि किसानों ने इस प्रौद्योगिकी को स्वीकार किया है और उनका अनुभव बेहद अच्छा रहा है। खाद्य की उपलब्धता को बढ़ाने के महत्वपूर्ण तरीकों में से एक यह है कि देश में भूमि और जल की उत्पादकता को बढ़ाया जाए। औद्योगिकरण का दबाव, कृषि योग्य भूमि की कमी और घटते जल स्तर के चलते यह काम सरल प्रतीत नहीं होता। हालांकि कृषि के तौर तरीकों और उपज में सुधार के जरिये इस समस्या से निपटने के बेहतरीन मौके हमारे पास हैं।
भारत में विभिन्न उत्पादों के लिए दिए जाने वाले प्रमाण-पत्रों का विवरण
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