बीज की अधिक उपज वाली किस्में

बीज की अधिक उपज वाली किस्में (HYV बीज) सामान्य गुणवत्ता के बीज की तुलना में बेहतर होती हैं। इन बीजों से उत्पादन सामान्य बीजों की तुलना में अधिक होता है। इस प्रकार के बीज स्वस्थ और अधिक फसल प्राप्त करने के लिए बीजों का एक बेहतर विकल्प हैं। इन बीजों में कीड़ों और अन्य रोगों से लड़ने के लिए एक बेहतर प्रतिरक्षा प्रणाली होती है। इन बीजों की एक और विशेषता होती है वो यह है कि इन बीजों को सिंचाई की कम जरूरत होती है। इन बीजों का भारत की हरित क्रांति में एक बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

Apr 29, 2016, 15:04 IST

बीज की अधिक उपज वाली किस्में (HYV बीज) सामान्य गुणवत्ता के बीज की तुलना में बेहतर होती हैं। इन बीजों से उत्पादन सामान्य बीजों की तुलना में अधिक होता है। इस प्रकार के बीज स्वस्थ और अधिक फसल प्राप्त करने के लिए बीजों का एक बेहतर विकल्प हैं। इन बीजों में कीड़ों और अन्य रोगों से लड़ने के लिए एक बेहतर प्रतिरक्षा प्रणाली होती है। इन बीजों की एक और विशेषता होती है वो यह है कि इन बीजों को सिंचाई की कम जरूरत होती है। इन बीजों का भारत की हरित क्रांति में एक बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

नई कृषि नीति (2000) के तहत, उच्च उपज वाले बीजों की किस्मों के विकास और उन्हें अपनाने पर विशेष जोर दिया जा रहा है। सरकार देश में नियोजन प्रक्रिया के समय से ही बीजों के गुणात्मक सुधार पर विशेष ध्यान दे रही थी ताकि 1966 से शुरू हई हरित क्रांति की सफलता को अधिक लम्बे समय तक बरक़रार रखा जा सके ।

मेक्सिको में, प्रो नॉर्मन बोरलॉग और उसके साथियों ने 1960 में मध्य दशक के दौरान गेहूं के बीज की एक नई प्रजाति विकसित है जो जल्दी परिपक्व होने के साथ–साथ उच्च उत्पादकता एवं रोगों के खिलाफ उच्च प्रतिरोधक क्षमता वाली थी। इन किस्मों को भारत के चयनित क्षेत्रों में आयात किया गया और पर्याप्त सिंचाई सुविधाओं के साथ लगाया गया। इन बीजों की शुरूआत के एक साल के अंदर इसको निर्णायक तौर पर उगाया गया। नई किस्मों से होने वाली पैदावार पारंपरिक किस्मों से होने वाली पैदावार की तुलना में 25-100 प्रतिशत तक अधिक हुई। एचआईवी (HYV) के तहत सातवीं योजना में इसे 70 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में लगाने का लक्ष्य रखा गया था जबकि वास्तविक क्षेत्र केवल 63,1 लाख हेक्टेयर था।  1998-99 में आवृत्त क्षेत्र 78.4 मिलियन हेक्टेयर तक पहुंच गया था।

उन्नत बीजों के उत्पादन विशेष रूप से उच्च उपज वाले बीज की किस्मों को पंजीकृत बीज उत्पादकों द्वारा केन्द्र और राज्य सरकारों के खेतों (फार्म) पर लगाया गया। इसके साथ – साथ, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद,  लुधियाना में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय,  जीबी पंत कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर और कई अन्य अनुसंधान संस्थान ऐसे बीजों की नई संकर किस्मों का विकास करनें में लगे हुए हैं जो भारतीय परिस्थितियों के लिए उपयुक्त हैं और विभिन्न बीजों का भी आयात किया जा रहा है जो भारतीय जरूरतों के अनुकूल हो।

देश के चयनित क्षेत्रों में पैदा होने वाली मैक्सिकन किस्में जैसे लेरमा रोजो-64-ए और सोनारा 64 ए को प्रत्यक्ष तौर पर प्रारंभिक अवधि में शुरू किया गया था और काफी ध्यान देने के बाद भारतीय किस्मों के साथ मैक्सिकन सामग्री का संकरण किया गया। गेहूं की इस प्रकार की उच्च उपज देने वाली किस्मे मुख्य तौर पर उर्वरकों, पर्याप्त पानी की आपूर्ति, कीटनाशकों और कीटनाशकों की उपलब्धता पर निर्भर रहती है। इसलिए इन्हें एक 'पैकेज कार्यक्रम' के रूप में शुरू किया जाना चाहिए।

सिंचाई पर अत्यधिक निर्भरता के कारण इन्हें उचित सिंचाई सुविधाओं वाले क्षेत्रों में ही अपनाया जा सकता है। भारतीय बीज कार्यक्रम में केन्द्र और राज्य सरकारों, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, राज्य कृषि विश्वविद्यालय, सार्वजनिक क्षेत्र, सहकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र के संस्थानों की भागीदारी भी शामिल है।

भारत के बीज क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर के दो निगम हैं, जिसमें पहला है राष्ट्रीय बीज निगम (एनएससी) और दूसरा भारतीय राज्य फार्म निगम (एसएफसीआई), हैं। गुणवत्ता नियंत्रण और प्रमाणन के लिए, 22 राज्य बीज प्रमाणन एजेंसियां (SSCAs) और 101 राज्य बीज परीक्षण प्रयोगशालाएं (SSTLs) हैं। विशेष रूप से 1988 की नई बीज नीति के लागू होने के बाद निजी क्षेत्र ने उत्पादन और बीज वितरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाना शुरू कर दिया गया, विशेष रूप से खाद्य फसलों और अनाज के लिए संगठित बीज क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र का वर्चस्व अभी भी जारी है। जहां तक प्रमाणित / गुणवत्ता के बीज वितरण का संबंध है, इसमें 1980-81 के 25 लाख कुंतल से 2010-11 में 277.3 लाख क्विंटल की वृद्धि हुई है।

दुर्भाग्य से, 1960 और 1970 के दशक की बीज क्रांति केवल अनाजों तक सीमित रहने के बाद समाप्त सी हो गयी। दलहन, तिलहन, फल और सब्जियों जैसे उन्नत बीजों वाली प्रौद्योगिकी का कृषि अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण खंडों में चलन नहीं हो पाया।  नतीजतन, घरेलू मांग को पूरा करने के लिए देश में हर साल लगभग 2 लाख टन खाद्य तेल और 1 लाख टन दालों का आयात करना पड़ा। उपरोक्त संदर्भ में, राष्ट्रीय बीज नीति 2001 बीज क्षेत्र के विकास के लिए रूपरेखा प्रदान करता है। यह किसानों को बेहतर गुणवत्ता के बीज किस्मों के साथ रोपण सामग्री की एक विस्तृत श्रृंखला प्रदान करना चाहता है।

तो इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि यदि इसी प्रकार उन्नत बीजों का प्रयोग भारतीय कृषि में बढ़ता रहा तो भारत की खाद्य जरूरतों को भविष्य में भी आसानी से पूरा किया जा सकता है।

Hemant Singh is an academic writer with 7+ years of experience in research, teaching and content creation for competitive exams. He is a postgraduate in International
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