ब्रह्मांड के विषय में बदलता दृष्टिकोण व कृत्रिम उपग्रह

2000 वर्ष पहले, यूनानी खगोलविदों ने सोचा था कि पृथ्वी ब्रह्मांड के केंद्र में है और चंद्रमा, सूर्य व तारे इसकी परिक्रमा करते हैं।15वीं सदी में, पोलैंड के वैज्ञानिक निकोलस कॉपरनिकस ने बताया कि सूर्य सौरमंडल के केंद्र में है और ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं। इस तरह सूर्य ब्रह्मांड का केंद्र बन गया है।16वीं सदी में जोहानेस केप्लर ने ग्रहीय कक्षा के नियमों की खोज की|

Apr 22, 2016, 11:47 IST

2000 वर्ष पहले, यूनानी खगोलविदों ने सोचा था कि पृथ्वी ब्रह्मांड के केंद्र में है और चंद्रमा, सूर्य व तारे इसकी परिक्रमा करते हैं।

  • छठी शताब्दी में आर्यभट्ट ने बताया था कि हम जिन अन्तरिक्ष निकायों को घूर्णन करता हुआ महसूस करते हैं उनका घूर्णन पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूर्णन की वजह से होता है। आर्यभट्ट ने ही इस बात की खोज की थी कि पृथ्वी के घूर्णन की वजह से ही दिन और रात होते हैं। उन्होंने इस बात को भी सिद्ध किया था कि चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण क्रमशः पृथ्वी और चंद्रमा की छाया की वजह से होता है।
  • 15वीं सदी में, पोलैंड के वैज्ञानिक निकोलस कॉपरनिकस ने बताया कि सूर्य सौरमंडल के केंद्र में है और ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं। इस तरह सूर्य ब्रह्मांड का केंद्र बन गया है।
  • 16वीं सदी में, जोहानेस केप्लर ने ग्रहीय कक्षा के नियमों की खोज की, लेकिन सूर्य तब भी ब्रह्मांड के केंद्र में बना रहा। 20वीं सदी की शुरुआत में जाकर हमारी अपनी आकाशगंगा की तस्वीर स्पष्ट हुई और पाया गया कि सूर्य आकाशगंगा के एक कोने में स्थित है।

कृत्रिम उपग्रह

मानव-निर्मित उपग्रह हैं, जो पृथ्वी की चारों तरफ घूमते रहते हैं, को ‘कृत्रिम उपग्रह’ कहते हैं। इन्हें पृथ्वी से प्रक्षेपित किया जाता है। चंद्रमा के मुकाबले ये पृथ्वी के बहुत निकट स्थित होते हैं। कृत्रिम उपग्रहों की डिजाइनिंग और निर्माण प्रौद्योगिकी को वैज्ञानिकों ने करीब 50 वर्ष या इससे थोड़ा पहले विकसित किया था| उन्होंने बहुत शक्तिशाली प्रक्षेपण यान या रॉकेट्स भी विकसित किए जो इन उपग्रहों को अंतरिक्ष में ले जाने और कक्षा में स्थापित करने में सक्षम होते हैं। फिलहाल दुनिया के सिर्फ कुछ देशों के पास कृत्रिम उपग्रह विकसित करने और उसे पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने की प्रौद्योगिकी है। भारत भी उन देशों में शामिल है और इसने कई कृत्रिम उपग्रहों को निर्मित कर प्रक्षेपित किया है। भारत का पहला प्रायोगिक कृत्रिम उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ था, जिसे अप्रैल 1975 में प्रक्षेपित किया गया था।

 

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कृत्रिम उपग्रहों का प्रयोग कई तरह के कार्यों में किया जाता है। इनका प्रयोग मौसम के पूर्वानुमान में भी किया जाता है। यह हमें मॉनसून के आगमन के बारे में सचेत कर सकते हैं और बाढ़, चक्रवात, जंगल की आग जैसी  संभावित आपदाओं के प्रति भी हमें चेतावनी दे सकते हैं। कृत्रिम उपग्रहों का प्रयोग इंटरनेट, दूरसंचार और रिमोट सेंसिंग/सुदूर संवेदन के लिए भी होता है। रिमोट सेंसिंग (दूर बैठकर जानकारी प्राप्त करने की तकनीक) का प्रयोग मौसम, कृषि, भूमि और महासागर की विशेषताओं के बारे में जानकारी एकत्र करने के लिए किया जाता है। इन प्रायोगिक कार्यों के अलावा कृत्रिम उपग्रहों का प्रयोग वैज्ञानिक अनुसंधानों के लिए भी किया जाता है, उदाहरण के लिए ये खगोलीय पर्यवेक्षण में मदद करने वाले उपकरण अपने साथ अंतरिक्ष में ले जा सकते हैं।

कृत्रिम उपग्रहों के माध्यम से परामर्श सेवाओँ का संचालन भी किया जा सकता है, जैसे-किसानों और मछुआरों को  भूमि प्रयोग, फसलों की स्थिति, समुद्र में मछलियों के घनत्व आदि की जानकारी देना। चूंकि कृत्रिम उपग्रहों में पृथ्वी के ऊपर से चीजों के निरीक्षण करने की क्षमता होती है, इसलिए इन्हें अंतरिक्ष की आँखें’ कहा जाता है।

संचार के लिए कृत्रिम उपग्रहों की गति इस प्रकार समायोजित की जाती है कि वे 24 घंटे में पृथ्वी का एक घूर्णन पूरा कर लें। परिणामस्वरूप, ये उपग्रह पृथ्वी पर स्थित पारेषण स्टेशन के संदर्भ में स्थिर लगते हैं। इन उपग्रहों को भू–स्थिर (Geostationary) या भू–समकालिक (Geosynchronous) उपग्रह कहते हैं। अंतरिक्ष में उपयुक्त स्थान पर स्थापित ऐसे तीन उपग्रहों की श्रृंखला पूरे विश्व को कवर कर सकती है। फिर किसी भी बिन्दु से संकेत पृथ्वी पर स्थित किसी भी दूसरे बिन्दु तक भेजे जा सकते हैं। एक कृत्रिम उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने के लिए आवश्यक न्यूनतम वेग करीब 8 किमी/से. होता है। इसके अलावा क्षैतिज स्थिति में धक्का देने के लिए उपग्रह को जमीन से करीब 200 किमी. की उंचाई तक उठाना अनिवार्य है। उपग्रह जब पृथ्वी के वायुमंडल से होकर गुजरते हैं, तो घर्षण की वजह से ऊर्जा की बहुत मात्रा नष्ट होती है, इसे कम करने के लिए ऐसा किया जाता है। चूंकि कृत्रिम उपग्रह को बहुत उच्च वेग के साथ प्रक्षेपित किए जाने की जरूरत होती है, इसलिए सिर्फ शक्तिशाली प्रक्षेपण यान यानि विशेष रूप से डिजाइन किए गए रॉकेट्स ही यह काम कर सकते हैं।

रॉकेट अपने निकासों (Exhausts) के जरिए बहुत उच्च गति से गैसों को छोड़ते हुए आगे बढ़ता है। इसलिए इस्तेमाल किए जाने वाले ईंधन के आवश्यक गुण इस प्रकार हैं–

a) इसे बहुत तेजी से जलना चाहिए लेकिन विस्फोट नहीं होना चाहिए

b) उच्च दबाव और तापमान पर इससे बड़ी मात्रा में गैस उत्पादित होनी चाहिए।

आम तौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला ईंधन तरल हाइड्रोजन ( या कभी–कभी केरोसिन) और तरल ऑक्सिजन का मिश्रण होता है। रॉकेट के वास्तिवक प्रक्षेपण से पहले उसमें तरल ईंधन भंडार कर रखना जोखिम भरा है। भंडारण के लिए ठोस ईंधन बेहतर होते हैं, क्योंकि इनमें किसी तरह का कोई खतरा नहीं होता। ठोस ईंधन के रूप में आम तौर पर प्रयुक्त होने वाले मिश्रण में एल्युमीनियम और अमोनियम पर क्लोरेट या अमोनियम नाइट्रेट का पाउडर होता है।

कभी–कभी अलग–अलग प्रकार के कामों के लिए उपग्रहों को कई प्रकार के उपकरणों को भी अपने साथ ले जाना होता है। ‘पेलोड’ (Payload) कहे जाने वाले इन उपकरणों का वजन उपग्रह को बहुत भारी बना देता है। ऐसे उपग्रहों को एक से अधिक रॉकेट के साथ, एक के बाद दूसरे को चला कर,  ऊपर ले जाया जा सकता है। एक से अधिक रॉकेट वाले प्रक्षेपण यानों को ‘मल्टीस्टेज प्रक्षेपण यान’ कहते हैं। कृत्रिम उपग्रहों की आमतौर पर दो प्रकार की कक्षाएं होती हैं। भू–स्थिर (geostationary) उपग्रहों की कक्षा भूमध्य रेखा के समानांतर होती है और ऐसी कक्षाओं को ‘भूमध्यरेखीय कक्षा’ कहते हैं। मौसम पूर्वानुमान और रिमोट सेंसिंग के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उपग्रहों की कक्षाएं पृथ्वी के ध्रुवों के ऊपर से गुजरती हैं। ऐसी कक्षाएं ‘ध्रुवीय कक्षाएं’ कहलाती हैं। यह कक्षाएं पृथ्वी की सतह से करीब 1000 किमी. ऊपर स्थित होती हैं।

ध्रुवीय कक्षा में उपग्रह की समय अवधि आमतौर पर दो घंटे कम होती  है, इसलिए यह एक दिन में कई चक्कर लगाता है। पृथ्वी  से निकटता की वजह से, एक ध्रुवीय उपग्रह जिन बिन्दुओं से गुजरता है उसके चारों तरफ की पृथ्वी के बड़े हिस्से का निरीक्षण कर सकता है। इसलिए ऐसे उपग्रह पूरी पृथ्वी का कुछ ही दिनों में स्कैन करने में सक्षम होते हैं। उपग्रह की उंचाई को समायोजित कर, इसकी समय अवधि को इस प्रकार समायोजित किया जाता है कि उपग्रह पृथ्वी पर दिए गए बिन्दु पर हर बार एक ही समय पर पहुंचता है। रिमोट सेंसिंग के लिहाज से ये बहुत आवश्यक है, क्योंकि उपग्रह दिए गए क्षेत्र का बार–बार निरीक्षण करने में सक्षम होता है। दिए गए क्षेत्र में किसी भी प्रकार के बदलाव के बारे में जानकारी इसके द्वारा अलग–अलग दिनों में भेजी गईं तस्वीरों का अध्ययन कर प्राप्त की जा सकती है।

उपग्रह का जीवनकाल इसकी कक्षा की स्थिरता पर निर्भर करता है। इसलिए, इस पर लगातार नजर रखी जाती है। अगर इसकी कक्षा में किसी प्रकार का बदलाव देखा जाता है, तो उपग्रहों में लगे छोटे रॉकेटों को चलाकर उसे तत्काल ठीक किया जाता है। कृत्रिम उपग्रहों की कक्षा प्राकृतिक उपग्रहों की कक्षा के जैसे ही आमतौर पर अण्डाकार होती है। दोनों ही मामलों में यह गुरुत्वाकर्षण की वजह से होता है। प्रेषित किए जाने वाली तस्वीरों और ध्वनि को वीडियो कैमरे के जरिए पहले विद्युत संकेतों में बदला जाता है। फिर इन विद्युत संकेतों को विशेष प्रकार की तरंगों में बदला जाता है और एक प्रसारण एंटीना के माध्यम से वायुमंडल में भेजी जाती हैं, ताकि वे कृत्रिम उपग्रहों तक पहुँच सकें।

कृत्रिम उपग्रहों में पृथ्वी के स्टेशन से भेजे गए संकेतों को प्राप्त करने के लिए विशेष उपकरण लगे होते हैं। इस प्रकार प्राप्त संकेतों को प्रवर्धित किया जाता है और फिर उपग्रह में लगे उपकरण उन्हें फिर से प्रेषित करते हैं। चूंकि कृत्रिम उपग्रह बहुत उंचाई पर स्थित होता है, इसलिए इसके द्वारा भेजे गए संकेत पृथ्वी के व्यापक क्षेत्र में पहुंत सकता है। पृथ्वी पर कई स्टेशनों पर लगे एंटीना, इसमें डिस्क एंटीना भी शामिल है, उपग्रह से भेजे गए संकेत प्राप्त करते हैं और इसे फिर से प्रेषित करते हैं। हमारे घरों में लगे टीवी सेट पृथ्वी के स्टेशनों या डिस्क एंटिनाओं के माध्यम से संकेत प्राप्त करते हैं। अंततः टीवी सेट तस्वीरों और ध्वनि के रूप में संकेतों को परिवर्तित करते हैं।

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