भारत में नृत्य की परंपरा प्राचीन समय से रही है| हड़प्पा सभ्यता की खुदाई से नृत्य करती हुई लड़की की मूर्ति पाई गई है, जिससे साबित होता है कि उस काल में भी नृत्यकला का विकास हो चुका था| भरत मुनि का नाट्य शास्त्र भारतीय नृत्यकला का सबसे प्रथम व प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है| इसको पंचवेद भी कहा जाता है|
नाट्यशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार नृत्य दो तरह के होते हैं- मार्गी (तांडव) तथा लास्य| तांडव नृत्य भगवान शंकर ने किया था| यह नृत्य अत्यंत पौरुष और शक्ति के साथ किया जाता है| दूसरी ओर लास्य एक कोमल नृत्य है जिसे भगवान कृष्ण गोपियों के साथ किया करते थे|
19वीं शताब्दी के पूर्व तक भारत में नृत्य काफी प्रचलित थे। लेकिन 19वीं शताब्दी आते-आते इसकी लोकप्रियता में काफी गिरावट आ गई थी| । किंतु 20वीं शताब्दी में कई लोगों के प्रयासों से नृत्यकला को पुनर्जीवन मिला।
भारत के शास्त्रीय नृत्य कलाओं का संक्षिप्त विवरण निम्न है:
भरतनाट्यम
भरत मुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित भरतनाट्यम अत्यंत परंपराबद्ध तथा विशिष्ट शैलीयुक्त नृत्य है। इस नृत्य शैली का विकास दक्षिण भारत के तमिलनाडु में हुआ था| प्रारंभ में यह नृत्य मंदिरों में देवदासियों द्वारा किया जाता था, तब इसे आट्टम और सदिर कहते थे। इसे वर्तमान रूप प्रदान करने का श्रेय तंजौर चतुष्टय अर्थात पौन्नैया,पिल्लै तथा उनके बंधुओं को है। 20वीं शताब्दी में रवीन्द्रनाथ टैगोर, उदयशंकर और मेनका जैसे कलाकारों के संरक्षण में यह नाट्यकला पुनर्जीवित हुई थी|
भरतनाट्यम में पैरों को लयबद्ध तरीके से जमीन पर पटका जाता है, पैर घुटने से विशेष रूप से झुके होते हैं एवं हाथ, गर्दन और कंधे विशेष प्रकार से गतिमान होते हैं।
रुक्मिणी देवी अरुण्डेल भारत की सबसे पहली प्रख्यात भरतनाट्यम नृत्यांगना हुई हैं। अन्य प्रमुख कलाकारों में यामिनी कृष्णमूर्ति, सोनल मानसिंह, मृणालिनी साराभाई, मालविका सरकार शामिल हैं।
कुचिपुड़ी
आंध्र प्रदेश के कुचेलपुरम नामक ग्राम में इस नृत्य शैली का उद्भव हुआ था| यह शास्त्रीय नृत्य भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के नियमों का पालन करता है। इस शैली का विकास तीर्थ नारायण तथा सिद्धेन्द्र योगी ने किया था| यह मूलत: पुरुषों का नृत्य है, परन्तु पिछले कुछ समय से महिलाओं ने भी इसे अपनाया है। इस नृत्य के लिए कर्नाटक संगीत का प्रयोग किया जाता है और इसका प्रदर्शन रात में होता है। कुचिपुड़ी के प्रमुख कलाकारों में वेदांतम सत्यनारायण, वेम्पत्ति चेन्नासत्यम, यामिनी कृष्णमूर्ति, राधा रेड्डी, राजा रेड्डी आदि शामिल हैं।
ओडिसी
भरतमुनि की नृत्य शैली पर आधारित इस शास्त्रीय नृत्य शैली का उद्भव व विकास दूसरी शताब्दी ई.पू. में उड़ीसा के राजा खारवेल के शासनकाल के दौरान हुआ। 12वीं शताब्दी के बाद वैष्णव धर्म से यह काफी प्रभावित हुई और जयदेव द्वारा रचित अष्टपदी इसकी एक आवश्यक अंग बन गई।
ओडिसी में सबसे महत्वपूर्ण तत्व ‘च्भंगीज्’ और ‘च्कर्णज्’ होते हैं। इसमें विभिन्न शारीरिक भंगिमाओं में शरीर की साम्यावस्था का अत्यन्त महत्व होता है।
आधुनिक काल में ओडिसी के पुनरुत्थान का श्रेय केलूचरण महापात्र को है। संयुक्ता पाणिग्राही, सोनल मानसिंह, मिनाती दास, प्रियवंदा मोहंती आदि ओडिसी की प्रसिद्ध नृत्यांगना हैं।
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कत्थक
उत्तर भारत का यह शास्त्रीय नृत्य मूलत: भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित है। इसका उद्भव वैदिक युग से माना जाता है। बाद में मुस्लिम शासकों के दौरान यह नृत्य शैली मंदिरों से निकलकर राजदरबारों में पहुँच गई। जयपुर, बनारस, राजगढ़ तथा लखनऊ इसके मुख्य केंद्र थे। लखनऊ के वाजिद अली शाह के काल में यह कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई थी|
यह अत्यंत नियमबद्ध एवं शुद्ध शास्त्रीय नृत्य शैली है, जिसमें पूरा ध्यान लय पर दिया जाता है। इस नृत्य में पैरों की थिरकन पर विशेष जोर दिया जाता है। इसके प्रसिद्ध कलाकार हैं- लच्छू महराज, शम्भू महराज, बिरजू महराज, सितारा देवी, गोपीकृष्ण, शोभना नारायण, मालविका सरकार इत्यादि।
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कथकली
केरल राज्य में जन्मी यह नृत्य शैली भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित है। कथकली भी मंदिरों से जुड़ा नृत्य है और इसे मात्र पुरुष ही करते हैं।
कथकली नृत्य में गति अत्यन्त उत्साहपूर्ण और भड़कीली होती है। इसके साथ इसमें शारीरिक भाव-भंगिमाओं का विशेष महत्व होता है। नर्तक अत्यन्त आकर्षक श्रृंगार का प्रयोग करते हैं। इस नृत्य में कथाओं के पात्र देवता या दानव होते हैं। 20वीं शताब्दी में वल्लाठोल ने इसके पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कथकली के प्रख्यात कलाकारों में गोपीनाथ, रागिनी देवी, उदयशंकर, रुक्मिणी देवी अरुण्डेल, कृष्णा कुट्टी, माधवन आनंद, शिवरमण इत्यादि शामिल हैं।
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मणिपुरी
15-16वीं शताब्दी में वैष्णव धर्म के प्रचार-प्रसार की वजह से मणिपुर में इस नृत्य शैली का उद्भव व विकास हुआ। मणिपुरी के विषय मुख्यतया कृष्ण की रासलीला पर आधारित होते हैं। मणिपुरी की सबसे खास बात शरीर की अत्यन्त आकर्षक एवं मृदु गति होती है जो इसे एक विशिष्ट सौंदर्य प्रदान करती है।
1917 में रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा इस नृत्य को शांतिनिकेतन में प्रवेश दिलाने के बाद यह पूरे देश में लोकप्रिय हो गया। इसके प्रमुख कलाकार हैं- गुरु अमली सिंह, आतम्ब सिंह, झावेरी बहनें, थम्बल यामा, रीता देवी, गोपाल सिंह इत्यादि।
मोहिनी अट्टम
यह केरल राज्य में प्रचलित देवदासी परंपरा का नृत्य है। 19वीं सदी में भूतपूर्व त्रावणकोर के महाराजा स्वाति तिरुनाल ने इसे काफी प्रोत्साहन दिया। बाद में कवि वल्लाठोल ने इसका पुनरुत्थान किया। इस नृत्य के प्रमुख कलाकार हैं- कल्याणी अम्मा, भारती शिवाजी, हेमामालिनी इत्यादि।
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कृष्णअट्टम
यह नृत्य शैली लगातार आठ रातों तक चलती है और इसमें भगवान कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन किया जाता है। यह केरल में प्रचलित है।
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यक्षगान
कर्नाटक में प्रचलित यह मूल रूप से ग्रामीण प्रकृति का नृत्य नाटक है। हिंदू महाकाव्यों से संबंधित इस नृत्य शैली में विदूषक और सूत्रधार मुख्य भूमिका निभाते हैं।
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