भारत के पर्यावरण आंदोलनों पर संक्षिप्त इतिहास

Jan 14, 2019, 14:57 IST

भारत में विकास के साथ-साथ पर्यावरण आधरित संघर्ष भी बढ़ते जा रहे हैं क्योंकी ये विकास नीति कही ना कही पर्यावरणीय संतुलन को खतरे में डालकर बनाया जा रहा है। सार्वजनिक नीति में परिवर्तन के माध्यम से पर्यावरण की रक्षा के लिए होने वाले विरोध को पर्यावरण आंदोलन बोला जा सकता है। इस लेख में हमने भारत के पर्यावरण आंदोलनों पर संक्षिप्त इतिहास को बताया है जो UPSC, SSC, State Services, NDA, CDS और Railways जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों के लिए बहुत ही उपयोगी है।

A brief history of the Environmental Movements in India HN
A brief history of the Environmental Movements in India HN

भारत में विकास के साथ-साथ पर्यावरण आधरित संघर्ष भी बढ़ते जा रहे हैं क्योंकी ये विकास नीति कही ना कही पर्यावरणीय संतुलन को खतरे में डालकर बनाया जा रहा है। हरित राजनीति या हरित आंदोलन या पर्यावरण आंदोलन को पर्यावरण के संरक्षण या विशेष रूप से पर्यावरण के प्रति झुकाव वाली राज्य नीति के सुधार के लिए एक सामाजिक आंदोलन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, सार्वजनिक नीति में परिवर्तन के माध्यम से पर्यावरण की रक्षा के लिए होने वाले विरोध को पर्यावरण आंदोलन बोला जा सकता है।

1. विश्नोई आंदोलन

बिश्नोई भारत का एक धार्मिक सम्प्रदाय है जिसके अनुयायी राजस्थान,हरियाणा, पंजाब, उतरप्रदेश और मध्यप्रदेश आदि प्रदेशों में पाये जाते हैं। श्रीगुरु जम्भेश्वर को बिश्नोई पंथ का संस्थापक माना जाता हैं जिन्हें जम्भोज़ी के नाम से भी जाना जाता हैं। इस सम्प्रदाय के संस्थापक ने अपने अनुयायियों के लिए 29 नियम दिये गये थे। 'बिश्नोई' दो शब्दों से मिलकर बना हुआ है: बीस + नो अर्थात जो उनतीस नियमों का पालन करता है। इन्हीं 29 नियमों अर्थात बीस और नौ के कारण ही इस सम्प्रदाय का नाम विश्नोई पडा।

यह प्रकृति पूजकों का अहिंसात्मक समुदाय है। यह आंदोलन वनों की कटाई के खिलाफ 1700 ईस्वी के आसपास ऋषि सोमजी द्वारा शुरू किया गया था। उसके बाद अमृता देवी ने आंदोलन को आगे बढ़ाया। विरोध में बिश्नोई समुदाय के 363 लोग मारे गए थे। जब इस क्षेत्र के राजा को विरोध और हत्या का पता चला तो वह गाँव गये और माफी मांगी तथा क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया। उल्लेखनीय है कि यह कानून आज भी मौजूद है।

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2. चिपको आन्दोलन

यह एक पर्यावरण-रक्षा का आन्दोलन था जो भारत के उत्तराखण्ड राज्य (तब उत्तर प्रदेश का भाग) में किसानो ने वृक्षों की कटाई का विरोध करने के लिए किया था। वे राज्य के वन विभाग के ठेकेदारों द्वारा वनों की कटाई का विरोध कर रहे थे और उन पर अपना परम्परागत अधिकार जता रहे थे। सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट इस आंदोलन के नेता थे। इस आंदोलन की सबसे उल्लेखनीय विशेषताएं महिलाओं की भागीदारी थी।

3. अप्पिको आंदोलन

यह आंदोलन भी चिपको आंदोलन की तरह पर्यावरण संरक्षण के लिये चलाया गया एक क्रांतिकारी आन्दोलन था। या फिर दुसरे शब्दों में कहे तो उत्तर का चिपको आंदोलन दक्षिण में ‘अप्पिको’ आंदोलन के रूप में उभरकर सामने आया था। यह आंदोलन अगस्त, 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ क्षेत्र में शुरू हुआ था। यह आन्दोलन वनों की सुरक्षा के लिए कर्नाटक में पांडूरंग हेगडे (Panduranga Hegde) के नेतृत्व में शुरू हुआ था।

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4. साइलेंटघाटी आंदोलन

केरल की शांत घाटी 89 वर्ग किलामीटर क्षेत्र में है जो अपनी घनी जैव-विविधता के लिए मशहूर है। 1980 में यहाँ कुंतीपूंझ नदी पर एक परियोजना के अंतर्गत 200 मेगावाट बिजली निर्माण हेतु बांध का प्रस्ताव रखा गया था। केरल सरकार इस परियोजना के लिए बहुत इच्छुक थी लेकिन इस परियोजना के विरोध में वैज्ञानिकों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं तथा क्षेत्रीय लोगों के स्वर गूंजने लगे। इनका मानना था कि इससे इस क्षेत्र के कई विशेष फूलों, पौधों तथा लुप्त होने वाली प्रजातियों को खतरा है। इसके अलावा यह पश्चिमी घाट की कई सदियों पुरानी संतुलित पारिस्थिति की को भारी हानि पहुँचा सकता है। दबाव में, सरकार को 1985 में इसे राष्ट्रीय आरक्षित वन घोषित करना पड़ा।

5. जंगल बचाओ आंदोलन

इस आंदोलन की शुरुआत 1980 में बिहार से हुई थी. बाद में यह आंदोलन झारखंड और उड़ीसा तक फैल गया। 1980 में सरकार ने बिहार के जंगलों को मूल्यवान सागौन के पेड़ों के जंगल में बदलने की योजना पेश की, और इसी योजना के विरुद्ध बिहार के सभी आदिवासी कबीले एकजुट हुए और उन्होंने अपने जंगलो को बचाने के लिए एक आन्दोलन चलाया। इसे 'जंगल बचाओ आंदोलन' का नाम दिया गया था। कई पर्यावरणविद इस आंदोलन को "राजनैतिक लालच का खेल और लोकलुभावनवाद" कहते हैं।

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6. नर्मदा बचाओ आंदोलन

यह आंदोलन भारत में चल रहे पर्यावरण आंदोलनों की परिपक्वता का उदाहरण है। इसने पहली बार पर्यावरण तथा विकास के संघर्ष को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनाया जिसमें न केवल विस्थापित लोगों बल्कि वैज्ञानिकों, गैर सरकारी संगठनों तथा आम जनता की भी भागीदारी रही।

नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना का उद्घाटन 1961 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। लेकिन तीन राज्यों-गुजरात, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान के मध्य एक उपयुक्त जल वितरण नीति पर कोई सहमति नहीं बन पायी। 1969 में, सरकार ने नर्मदा जल विवाद न्यायधिकरण का गठन किया ताकि जल संबंधी विवाद का हल करके परियोजना का कार्य शुरु किया जा सके।

पर्यावरणविदों और स्थानीय लोगों ने 1985 से हाइड्रो-बिजली के उत्पादन के लिए नर्मदा पर बांधों के निर्माण के खिलाफ विरोध शुरू कर दिया था, जिसे नर्मदा बचाओ अनंदोलन के नाम से जाना जाता था। मेधा पाटकर इस अनंदोलन की नेता रही हैं, जिन्हें अरुंधति रॉय, बाबा आमटे और आमिर खान का समर्थन मिला।

7. टिहरी बांध विरोधी आंदोलन

टिहरी बांध उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में भागीरथी और भिलंगना नदी पर बनने वाला ऐशिया का सबसे बड़ा तथा विश्व का पांचवा सर्वाधिक ऊँचा (अनुमानित ऊँचाई 260.5 मी०) बांध है। इसके निर्माण की स्वीकृति 1972 में योजना आयोग ने दी थी। ऐसा अनुमान है कि टिहरी जलविद्युत परिसर के पूर्ण होने पर यहाँ से प्रतिवर्ष 620 करोड़ यूनिट बिजली का उत्पादन होगा जो दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों के लोगों को बिजली तथा पेयजल की सुविधा उपलब्ध करायेगा।

इस परियोजना का सुंदरलाल बहुगुणा तथा अनेक पर्यावरणविदों ने कई आधारों पर विरोध किया है। इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हैरिटेज द्वारा टिहरी बांध के मूल्याकंन की रिपोर्ट के अनुसार यह बांध टिहरी कस्बे और उसके आसपास के 23 गांवों को पूर्ण रूप से तथा 72 अन्य गांव को आंशिक रूप से जलम, न कर देगा, जिससे 85600 लोग विस्थापित हो जाएंगे।

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