भारत की आजादी से पहले कई विद्रोह हुए, जिनकी वजह से भारत को आजादी मिली। हालांकि, आजादी मिलना इतना आसान नहीं था, क्योंकि आजादी के लिए कई शूरवीरों को अपने प्राणों की आहूति देनी पड़ी। लंबे संघर्ष और कई प्राणों की आहूति के बाद भारत को आजादी मिली।
इस कड़ी में समय-समय पर कई विद्रोह का आयोजन हुआ, जिससे अंग्रेजी हुकूमत को दबाया जा सके। इन विद्रोहों में स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक का विरोध देखने को मिला। इन विद्रोहों में भारत का प्रसिद्ध पागलपंथी विद्रोह भी शामिल है, जिसे अंग्रेजों के खिलाफ चलाया गया था। हालांकि, क्या आप जानते हैं कि पागलपंथी विद्रोह क्या था और किसने इसे शुरू किया था। यदि नहीं, तो इस लेख के माध्यम से हम इस बारे में जानेंगे।
कब शुरू हुआ था पागलपंथी विद्रोह
सबसे पहले हम यह जान लेते हैं कि पागलपंथी विद्रोह कब शुरू हुआ था, तो आपको बता दें कि यह विद्रोह साल 1813 में बंगाल में शुरू हुआ था।
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क्या था पागलपंथी विद्रोह का उद्देश्य
अब सवाल है कि पागलपंथी विद्रोह का उद्देश्य क्या था, तो आपको बता दें कि विद्रोह का उद्देश्य जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ विद्रोह प्रकट करना था।
पागलपंथी विद्रोह पर एक नजरः
पागलपंथी विद्रोह का आगाज बंगाल में हुआ था, जो कि एक अर्द्धधार्मिक संप्रदाय था। इस संप्रदाय को करमशाह द्वारा चलाया गया था। वहीं, करमशाह का पुत्र था टीपू मीर, जिसने जमींदारों के खिलाफ 1813 ई. यह आंदोलन शुरू किया था।
आपको बता दें कि पागलपंथी विद्रोह की शुरुआत भी टीपू द्वारा की गई थी।
दरअसल, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बंगाल समेत भारत पर अधिकांश कब्जा कर लिया गया था। ऐसे में टीपू ने अपने संगठन को जमींदारों और अंग्रेजों द्वारा लगाए गए दमनकारी कराधान और नियमों के खिलाफ एकत्रित किया। साथ ही राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व पर भी अपना नियंत्रण किया।
क्या रहा प्रभाव
साल 1813 में करीम शाह की मौत हो गई, जिसके बाद उनकी सीट पर उनके बेटे टीपू शाह बैठे। टीपू को पागल नाम से भी जाना जाता था। किसानों को जमींदारों के उत्पीड़न और बढ़े हुए दावों से बचाने के लिए टीपू व उनके सहयोगी ब्रिटिश कंपनी के सैनिकों के साथ-साथ जमींदारों से भी युद्ध लड़ते रहे।
हालांकि, 1833 में टीपू व उनके सहयोगियों को पकड़ लिया गया और उन पर मुकदमा चला। सरकार द्वारा उनकी मांगों को कम कर दिया गया, जिससे आंदोलन विभाजति हो गया। टीपू के बाद जंकू पाथोर द्वारा आंदोलन को संभाला गया। उनके द्वारा शेरपुर में हमला कर पुलिस स्टेशन से हथियारों की लूट भी की गई और बाद में पुलिस स्टेशन को आगे के हवाले कर दिया गया। कुछ समय तक ब्रिटिश और किसानों के बीच समझौते हुए। हालांकि, अंत में यह विद्रोह भी दबा दिया गया।
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