भारत की जलवायु मानसून हवाओं से बहुत अधिक प्रभावित है। ऐतिहासिक काल में भारत आने वाले नाविकों ने सबसे पहले मानसून की परिघटना पर ध्यान दिया था, क्योंकि मानसूनी हवाओं या वायु प्रणाली के उलटने से उन्हें लाभ होता था। इसीलिए भारत में व्यापारियों के रूप में आए अरबों ने वायु प्रणाली के मौसमी उलट–फेर को 'मानसून' नाम दिया है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में मोटे तौर पर 20° उ. और 20°द. अक्षांशों के बीच मानसून प्रभावी होता है। मानसून के तंत्र को समझने के लिए निम्नलिखित तथ्य को समझना महत्वपूर्ण हैः
- स्थल और जल के गर्म और ठंडे होने की दर में अंतर होता है, अर्थात स्थल की तुलना में जल देर से गर्म और ठंडा होता है | इसी कारण से गर्मियों में भारत के स्थलीय भाग पर निम्न दाब का निर्माण हो जाता है जबकि आस–पास के समुद्री भाग पर उच्च दाब पाया जाता है |
- गर्मियों में अंतरा उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) की स्थिति में परिवर्तन हो जाता है और गंगा के मैदानी भाग के ऊपर स्थित हो जाती है, जिसे मानसून द्रोणी के नाम से जाना जाता है (अंतरा उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र आम तौर पर भूमध्यरेखा से करीब 5° उत्तर में स्थित होता है)।
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- हिन्द महासागर के ऊपर करीब 20° द. अक्षांश पर अर्थात मेडागास्कर के पूर्व में उच्च दाब वाले क्षेत्र की उपस्थिति पायी जाती है |इस उच्च दाब क्षेत्र की तीव्रता और स्थिति भारतीय मानसून को प्रभावित करती है।
- तिब्बत के पठार गर्मियों में बहुत गर्म हो जाते हैं, जिसकी वजह से पवन की प्रबल ऊर्ध्वाधर धाराएं पैदा होती हैं और तिब्बत पठार के ऊपर (समुद्र तल से करीब 9 किमी. ऊपर) उच्च दाब का क्षेत्र बन जाता है।
- पश्चिमी जेट धारा का हिमालय के उत्तर की तरफ विस्थापित होना और गर्मियों के दौरान भारतीय प्रायद्वीप पर उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट धारा की उपस्थिति भी भारतीय मानसून को प्रभावित करती है।
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इसके अलावा, यह भी देखा गया है कि दक्षिणी महासागरों पर दाब की स्थितियों में परिवर्तन भी मानसून को प्रभावित करता है। आमतौर पर, जब उष्णकटिबंधीय पूर्वी दक्षिण प्रशांत महासागर में उच्च दाब बनता है, तो उष्णकटिबंधीय पूर्वी हिन्द महासागर में निम्न दाब का क्षेत्र बन जाता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, दाब की परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ है और पूर्वी हिन्द महासागर की तुलना में पूर्वी प्रशांत महासागर में दाब कम पाया गया है। दाब परिस्थितियों में समय– समय पर होने वाले ये बदलाव ‘दक्षिणी दोलन’ कहलाते हैं।
मानसून की तीव्रता का अनुमान लगाने के लिए ताहिती (प्रशांत महासागर में 18°द. अक्षांश व 149° प. देशांतर पर स्थित) और उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में डार्विन (हिन्द महासागर में 12°30' द. अक्षांश व 131° पू. देशांतर पर स्थित) पर दाब में अंतर की गणना की जाती है। अगर दाब का अंतर नकारात्मक होता है तो इसका अर्थ है कि मानसून औसत से कम रहेगा या देर से आएगा।
अल–नीनो ‘दक्षिणी दोलन’ से ही जुड़ी एक विशेषता है | अल–नीनो महासागर की गर्म धारा है, जो प्रत्येक 2 से 5 वर्षों के अंतराल पर ठंडी पेरू धारा को विस्थापित कर पेरु तट से गुजरती है। दाब की स्थितियों में होने वाला बदलाव अल नीनो से ही संबंधित है। इसलिए, इस घटना को ‘एनसो (ENSO– El-Nino Southern Oscillation)’ कहा जाता है।
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